________________ है। 33 जो जल-स्पर्श से ही मुक्ति मानते हैं, वे मिथ्यात्वी हैं। यदि जल-स्नान से कर्म-मल नष्ट होता है तो पुण्य-फल भी नष्ट होगा, अतः यह धारणा भ्रान्त है। प्रस्तुत अध्ययन में हिंसात्मक यज्ञ की निरर्थकता भी सिद्ध की है। यज्ञ वैदिकसंस्कृति की प्रमुख मान्यता रही है। वैदिकदृष्टि से यज्ञ की उत्पत्ति का मूल विश्व का आधार है। पापों के नाश के लिए, शत्रुओं के संहार के लिए, विपत्तियों के निवारण के लिए, राक्षसों के विध्वंस के लिए, व्याधियों के परिहार के लिए यज्ञ प्रावश्यक है। यज्ञ से सुख, समृद्धि और अमरत्व प्राप्त होता है। ऋग्वेद में कहा है--यज्ञ इस भवन को उत्पत्ति करने वाले संसार की नाभि है। देव तथा ऋषिगण यज्ञ से ही उत्पन्न हुए हैं। यज्ञ से ही ग्राम, अरण्य और पशुओं की सृष्टि हुई है। यज्ञ ही देवों का प्रमुख एवं प्रथम धर्म है / 134 जैन और बौद्ध परम्परा ने यज्ञ का विरोध किया। उत्तराध्ययन के नवमें, बारहवें, चौदहवें और पच्चीसवें अध्ययनों में यज्ञ का विरोध इसलिए किया है कि उसमें जीवों की हिंसा होती है। वह धर्म नहीं अपितु पाप है। साथ ही वास्तविक प्राध्यात्मिक यज्ञ का स्वरूप भी इन अध्ययनों में स्पष्ट किया गया है। उस समय निर्ग्रन्थ श्रमण * यज्ञ के वाड़ों में भिक्षा के लिए जाते थे और यज्ञ की व्यर्थता बताकर मात्मिक-यज्ञ की सफलता का प्रतिपादन करते थे। 35 तथागत बुद्ध भिक्षुसंघ के साथ यज्ञमण्डप में गये थे। उन्होंने अल्प सामग्री के द्वारा महान् यज्ञ का प्रतिपादन किया। उन्होंने 'कुट दन्त' ब्राह्मण को पांच महाफलदायी यज्ञ बताये थे। वे ये हैं-[१] दानयज्ञ, [2] त्रिशरणयज्ञ[३] शिक्षापदयज्ञ, [4] शीलयज्ञ, 15] समाधियज्ञ / '36 ___इस तरह बारहवें अध्ययन में श्रमण-संस्कृति की दृष्टि से विपुल सामग्री है। प्रस्तुत कथा प्रकारान्तर से बौद्धसाहित्य में भी आई है। उस कथा का सारांश इस प्रकार है-वाराणसी का मंडव्यकूमार प्रतिदिन सोलह सहस्र ब्राह्मणों को भोजन प्रदान करता था। एक बार मातंग पण्डित हिमालय के आश्रम से भिक्षा के लिए वहाँ आया। उसके मलिन और जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को देख कर उसे वहाँ से लौट जाने को कहा गया। मातंग पण्डित ने मंडव्य को उपदेश देकर दान-क्षेत्र की यथार्थता प्रतिपादित की। मंडव्य के साथियों ने मातंग को खूब पीटा। नगर के देवताओं ने ऋद्ध होकर ब्राह्मणों की दुर्दशा की। श्रेष्ठी कन्या 'दिदमंगला' वहाँ पर पाई। उसने वहाँ की स्थिति देखी। उसने स्वर्ण कलश और प्याले लेकर मातंग पंडित से जाकर क्षमायाचना की / मातंग पण्डित ने ब्राह्मणों को ठीक होने का उपाय बताया / दिट्टमंगला ने ब्राह्मणों को दान-क्षेत्र की यथार्थता बतलाई / 137 उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन की अनेक गाथाओं का ही रूप मातंग जातक की अनेक गाथागों में ज्यों का त्यों मिलता है। 35 डा. घाटगे का मानना है कि बौद्धपरम्परा की कथा-वस्तु विस्तार के साथ लिखी गई है / उसमें अनेक विचारों का सम्मिश्रण हुया है। जबकि जैनपरम्परा की कथा-वस्तु में अत्यन्त सरलता है तथा हृदय को छूने की विशेषता रही हुई है। इससे यह स्पष्ट है कि बौद्ध कथावस्तु से जैन कथावस्तु प्राचीन है। मातंग 133. "पानोसिणाणादिसु णस्थि मोक्खो।" -सूत्रकृतांग 1.7.13 134. वैदिक संस्कृति का विकास, पृष्ठ 40 135. उत्तराध्ययन 12 / 38-44, 2515-16 136. दीघनिकाय, 15 पृ. 53-55 137. जातक, चतुर्थ खण्ड-४९७, मातंगजातक पृष्ठ 583-597 138. धर्मकथानुयोग : एक सांस्कृतिक अध्ययन, लेखक-देवेन्द्रमुनि शास्त्री [ 48 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org