________________ दिन तुम पर भी वही बीतेगी जो आज हम पर बीत रही है। 123 इस उपमा का उपयोग परवर्ती साहित्य में कवियों ने जमकर किया है। दसवें अध्ययन में बताया है--जैसे शरदऋतु का रक्त कमल जल में लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा--तू अपने स्नेह का विच्छेद कर निलिप्त बन ! यही बात धम्मपद में भी कही गई है। भाव एक है, पर भाषा में कुछ परिवर्तन है। उदाहरण के रूप में देखिए-- "वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमयं सारइयं व पाणियं / से सम्बसिणेहवज्जिए, समय गोयम ! मा पमायए // " -~~ उत्तराध्ययनसूत्र 10128 तुलना कीजिए "उच्छिन्द सिनेहमत्तनो, कुमुदं सारदिकं व पाणिना। सन्तिमग्गमेव ब्रहय, निब्वानं सुगतेन देसितं // " -धम्मपद 20113 बहुश्रुतता : एक चिन्तन ग्यारहवें अध्ययन में बहुश्रुत की भाव-पूजा का निरूपण है। इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'बहुश्रुतपूजा" है / नियुक्तिकार भद्रबाहु ने बहुश्रुत का अर्थ चतुर्दशपूर्वी किया है। प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत के गुणों का वर्णन है। यों बहुश्रुत के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन भेद किये हैं। जघन्य---निशीथशास्त्र का ज्ञाता, मध्यम-निशीथ से लेकर चौदह पूर्व के पहले तक का ज्ञाता और उत्कृष्ट-चौदहपूर्वो का वेत्ता / प्रस्तुत अध्ययन में विविध उपमानों से तेजस्वी व्यक्तित्व को उभारा गया है। वस्तुतः ये उपमाएँ इतनी वास्तविक है कि पढ़तेपढ़ते पाठक का सिर सहज ही श्रद्धा से बहुश्रुत के चरणों में नत हो जाता है। बहुश्रुतता प्राप्त होती हैविनय से / विनीत व्यक्ति को प्राप्त करके ही श्रुत फलता और फूलता है। जिसमें क्रोध, प्रमाद, रोग, आलस्य और स्तब्धता ये पांच विघ्न हैं, वह बहुश्रुतता प्राप्त नहीं कर सकता / विनीत व्यक्ति ही बहुश्रुतता का पूर्ण अधिकारी है। बारहवें अध्ययन में मुनि हरिकेशबल के सम्बन्ध में वर्णन है। हरिकेश चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुए थे। किन्तु तप के दिव्य प्रभाव से वे देवताओं के द्वारा भी वन्दनीय बन गये थे। प्रस्तुत अध्ययन में दान के लिए सुपात्र कौन है ? इस सम्बन्ध में कहा है जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह की प्रधानता है, वह दान का पात्र नहीं है। स्नान के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है। हरिकेश मुनि ने ब्राह्मणों से कहा-बाह्य स्नान से प्रात्मशुद्धि नहीं होती, क्योंकि वैदिकपरम्परा में जलस्नान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया था। हरिकेशवल मुनि से पूछा गया---आपका जलाशय कौन-सा है, शान्तितीर्थ कौन-सा है, अाप कहाँ पर स्नान कर कर्म रज को धोते हैं। मुनि ने कहा---प्रकलुषित एवं प्रात्मा के प्रसन्न लेश्या वाला धर्म मेरा जलाशय 123. परिजरियपेरत, चलंत विटं पडंतनिच्छीरं। पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं // 120 // जह तुटभे तह अम्हे, तुम्हेवि होहिहा जहा अम्हे / अप्पाहेई पड़तं. पंड्यपत्तं किसलयाणं // 121 / / --अनुयोगद्वार, सूत्र 146 [ 46 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org