________________ "सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सियाह केलाससमा असंखया / नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छा उपागाससमा अणन्तिया // " --उत्तराध्ययन. 148 तुलना कीजिए-~ "पर्वतोपि सुवर्णस्य, समो हिमवता भवेत् / नालं एकस्य तद् वित्तं, इति विद्वान समाचरेत् // " -दिव्यावदान, पृष्ठ 224 "पुढवी साली जवा चेद, हिरण्णं पसुभिस्सह / पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे॥" --उत्तराध्ययनसूत्र 9 / 49 तुलना कीजिए "यत्पृथिव्यां ब्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः / सर्व तन्नालमेकस्य, तस्माद विद्वाञ्छमं चरेत् // " अनुशासनपर्व 93140 "यत् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः / नालमेकस्य तत् सर्वमिति, पश्यन्न मुह्यति // " -उद्योगपर्व 39 / 84 "यद् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः / एकस्यापि न पर्याप्तं, तदित्यवितृष्णां त्यजेत् / / " -विष्णुपुराण 4 / 10 / 10 वैदिकदृष्टि में गृहस्थाश्रम को प्रमुख माना गया है। इन्द्र ने कहा--राजर्षि ! इस महान् आश्रम को छोड़ कर तुम अन्य प्राश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं है। यहीं पर रहकर धर्म का पोषण करो एवं पौषध में रत रहो! नमि राजर्षि ने कहा-हे ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करके पारणा में कुशाग्र मात्र आहार ग्रहण करने वाला गृहस्थ मुनिधर्म की सोलहवीं कला भी प्राप्त नहीं कर सकता। इस प्रकार गृहस्थजीवन की अपेक्षा श्रमणजीवन को श्रेष्ठ बताया गया है। अन्त में इन्द्र नमि राजषि के दृढ़ संकल्प को देखकर अपना असली रूप प्रकट करता है और नमि राजर्षि की स्तुति करता है। प्रस्तुत अध्ययन में ब्राह्मण-संस्कृति और श्रमण-संस्कृति का पार्थक्य प्रकट किया गया है। जागरण का सन्देश दसवें अध्ययन में भगवान महावीर द्वारा गौतम को किया गया उद्बोधन संकलित है। गौतम के माध्यम से सभी श्रमणों को उद्बोधन दिया गया है। जीवन की अस्थिरता, मानवभव की दुर्लभता, शरीर और इन्द्रियों की धीरे-धीरे क्षीणता तथा त्यक्त कामभोगों को पुन: न ग्रहण करने की शिक्षा दी गई है। जीवन की नश्वरता द्र मपत्र की उपमा से समझाई गई है। यह उपमा अनुयोगद्वार नादि में भी प्रयुक्त हुई है। वहाँ पर कहा है-पके हए पतों को गिरते देख कोपलें खिलखिला कर हँस पड़ों। तब पके हुए पत्तों ने कहा-जरा ठहरो! एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org