________________ 338] [उत्तराध्ययनसूत्र समझ रहा था। इसलिए मुनि ने उसको कहा-तुम नहीं जानते कि पुरुष 'अनाथ' या 'सनाथ' कैसे होता है ? ' मुनि द्वारा अपनी अनाथता का प्रतिपादन 17. सुणेह मे महाराय ! अविक्खित्तेण चेयसा। जहा अणाहो भवई जहा मे य पवत्तियं / / [17] हे महाराज ! आप मुझ से अव्याक्षिप्त (एकाग्र) चित्त होकर सुनिये कि (वास्तव में मनुष्य) अनाथ कैसे होता है ? और मैंने किस अभिप्राय से वह (अनाथ) शब्द प्रयुक्त किया है ? 18. कोसम्बी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी।। तत्थ आसी पिया मज्झ पभूयधणसंचयो॥ [18] (मुनि)-प्राचीन नगरों में असाधारण, अद्वितीय कौशाम्बी नाम की नगरी है / उसमें मेरे पिता (रहते थे। उनके पास प्रचुर धन का संग्रह था। 19. पढमे वए महाराय ! अउला मे अच्छिवेयणा / अहोत्था विउलो दाहो सब्वंगेसु य पत्थिवा ! // [16] महाराज ! प्रथम वय (युवावस्था) में मुझे (एक बार) अतुल (असाधारण) नेत्र-पीड़ा उत्पन्न हुई / हे पृथ्वीपाल ! उससे मेरे शरीर के सभी अंगों में बहुत (विपुल) जलन होने लगी। 20. सत्थं जहा परमतिक्खं सरोरविवरन्तरे / पवेसेज्ज अरी कुद्धो एवं मे अच्छिवेयणा / / [20] जैसे कोई शत्रु क्रुद्ध होकर शरीर के (कान-नाक आदि के) छिद्रों में अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र को घोंप दे और उससे जो वेदना हो, वैसी ही (असह्य) वेदना मेरी आंखों में होती थी। 21. तियं मे अन्तरिच्छं च उत्तमंगं च पीडई / इन्दासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा / [21] इन्द्र के वज्र-प्रहार के समान घोर एवं परम दारुण वेदना मेरे त्रिक-काट भाग को, अन्तरेच्छ-हृदय को और उत्तमांग-मस्तिष्क को पीड़ित कर रही थी। 22. उवट्ठिया मे आयरिया विज्जा-मन्ततिगिच्छगा। अबीया सत्थकुसला मन्त-मूलविसारया // [22] विद्या और मंत्र से चिकित्सा करने वाले, मंत्र तथा मूल (जड़ी-बूटियों) में विशारद, अद्वितीय शास्त्रकुशल प्राणाचार्य (या आयुर्वेदाचार्य) उपस्थित हुए। 1. "अनाथशब्दस्यार्थ चाभिधेयम्, उत्था वा-उत्थानं मूलोत्पत्ति, केनाभिप्रायेण मयोक्तमित्येवंरूपाम् / अथवाअर्थ, प्रोत्था वा-प्रकृष्टोत्थानरूपामतएव यथाऽनाथ: सनाथो वा भवति तथा च न जानीषे इति सम्बन्धः / " —बृहद्वत्ति, पत्र 475 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org