________________ 316] [उत्तराध्ययनसूत्र ताडना, तर्जना, वध और बन्ध-ताडन-हाथ आदि से मारना-पीटना, तर्जना तर्जनी अंगुली आदि दिखाकर या भ्र कुटि चढ़ाकर डांटना-फटकारना, वध-लाठी आदि से प्रहार करना, बन्ध-मूज, रस्सी आदि से बांधना।' अहोवेगंतदिट्ठीए-जैसे सांप अपने चलने योग्य मार्ग पर ही अपनी दृष्टि जमाकर चलता है, दूसरी ओर दृष्टि नहीं दौड़ाता, वैसे ही साधक को अपने चारित्रमार्ग के प्रति एकान्त अर्थात्एक ही (चारित्र ही) में निश्चल दृष्टि रखनी होती है / निहुयं नीसंकं-निभृत-निश्चल अथवा विषयाभिलाषा आदि द्वारा प्रक्षोभ्य ; निःशंकशरीरादि निरपेक्ष, अथवा सम्यक्त्व के अतिचार रूप शंका से रहित / अणुवसंतेणं-अनुपशान्त अर्थात्-जिसका कषाय शान्त नहीं हुआ है। पंचलक्खणए-यह भोग का विशेषण है / पंचलक्षण का अर्थ है-शब्दादि इन्द्रियविषयरूप पांच लक्षणों वाला......। भुत्तभोगी तओ पच्छा०-यौवन में प्रव्रज्या अत्यन्त कठिन एवं दुःखकर है, इत्यादि बातें समझाकर अन्त में माता-पिता कहते हैं--इतने पर भी तेरी इच्छा दीक्षा ग्रहण करने की हो तो भुक्तभोगी होकर ग्रहण करना / मृगापुत्र द्वारा नरक के अनन्त दुःखों के अनुभव का निरूपण 45. तं बित ऽम्मापियरो एवमेयं जहा फुडं। इह लोए निप्पिवासस्स नस्थि किंचि वि दुक्करं / / __ [45] (मृगापुत्र)-उसने (मृगापुत्र ने) माता-पिता से कहा- आपने जैसा कहा है, वह वैसा ही है, 'प्रव्रज्या दुष्कर है' यह स्पष्ट है; किन्तु इस लोक में जिसकी पिपासा बुझ चुकी हैअभिलाषा शान्त हो गई है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। 46. सारीर-माणसा चेव वेयणाओ अणन्तसो। __मए सोढाओ भीमाओ असई दुक्खमयाणि य // [46] मैंने शारीरिक और मानसिक भयंकर वेदनाएँ अनन्त बार सहन की हैं तथा अनेक बार दुःखों और भयों का भी अनुभव किया है / 47. जरा-मरणकन्तारे चाउरन्ते भयागरे / ____मए सोढाणि भीमाणि जम्माणि मरणाणि य / / [47] मैंने नरकादि चार गतिरूप अन्त वाले, जरामरणरूपी भय के आकर (खान), (संसाररूपी) कान्तार (घोर अरण्य )में भयंकर जन्म और मरण सहे हैं / 1. ताडना-करादिभिराहननं, तर्जना-अंगुलिभ्रमण-भ्रूक्षेपादिरूपा, वधश्च लकुटादिप्रहारो, बन्धश्च-मयूर बन्धादिः। ---बहदवत्ति, पत्र 456 2. (क) वही, पत्र 457 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. 3, पृ० 508 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 457 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org