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________________ अठारहवां अध्ययन : संजयीय ] [303 [54] धीर साधक (पूर्वोक्त एकान्तवादी) अहेतुवादों से अपने आपको कैसे परिवासित करे? जो सभी संगों से विनिर्मुक्त है, वही नीरज (कर्मरज से रहित) हो कर सिद्ध होता है / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- उम्मत्तो स्व :-उन्मत्त-ग्रहगृहीत की तरह, सत्तत्व रूप वस्तु का अपलाप करके या असत्प्ररूपणा करके। तात्पर्य गाथा 51 द्वारा क्षत्रियमुनि का अभिप्राय यह है कि जैसे पूर्वोक्त महान् आत्मानों ने कुवादिपरिकल्पित क्रियावाद आदि को छोड़ कर जिनशासन को अपनाने में ही अपनी बुद्धि निश्चित कर ली थी, वैसे आपको (संजय मुनि को) भी धीर हो कर इसी जिनशासन में अपना चित्त दृढ़ करना चाहिए। अच्चंतनियाणखमा : दो अर्थ-(१) अत्यन्त निदानों—कारणों हेतुअों से सक्षम-युक्त / अथवा (2) अत्यन्त रूप से निदान---कर्ममलशोधन में सक्षम-समर्थ / / अत्ताणं परियावसे--कुहेतुओं से प्रात्मा को शासित कर सकता है, अर्थात् आत्मा को कैसे कुहेतुत्रों के स्थान में आवास करा सकता है ? सव्वसंगविनिम्मुक्के-समस्त संग-द्रव्य से धन-धान्यादि और भाव से मिथ्यात्वरूप क्रियावादादि से रहित / ' // संजयीय (संयतीय) : अठारहवाँ अध्ययन सम्पूर्ण // -- -- 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 449-450 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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