________________ सत्रहवाँ अध्ययन : पापश्रमरणीय अध्ययन-सार * प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'पापश्रमणीय' है। इसमें पापी श्रमण के स्वरूप का निरूपण किया गया है। * श्रमण बन जाने के बाद यदि व्यक्ति यह सोचता है कि अब मुझे और कुछ करने की कोई अावश्यकता नहीं है. न तो मझे ज्ञानवद्धि के लिए शास्त्रीय अध्ययन की जरूरत है. न तप. जप, ध्यान अहिंसादि व्रतपालन या दशविध श्रमणधर्म के आचरण की अपेक्षा है, तो यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है। इसी भ्रान्ति का शिकार होकर साधक यह सोचने लगता है कि मैं महान् गुरु का शिष्य हूँ। मुझे सम्मानपूर्वक भिक्षा मिल जाती है, धर्मस्थान, वस्त्र, पात्र या अन्य सुखसुविधाएँ भी प्राप्त हैं। अब तप या अन्य साधना करके आत्मपीड़न से क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार विवेकभ्रष्ट होकर सोचने वाले श्रमण को प्रस्तुत अध्ययन में 'पापश्रमण' कहा गया है। श्रमण दो कोटि के होते हैं। एक सुविहित श्रमण और दूसरा पापश्रमण / सुविहित श्रमण वह है, जो दीक्षा सिंह की तरह लेता है और सिंह की तरह ही पालन करता है / अहर्निश ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की साधना में पुरुषार्थ करता है। प्रमाद को जरा भी स्थान नहीं देता। उसका ग्रात्मभान जागत रहता है। वह निरतिचार संयम का एवं महावतों का पालन करता है। समता उसके जीवन के कण-कण में रमी रहती है / क्षमा आदि दस धर्मों के पालन में वह सतत जागरूक रहता है। इसके विपरीत पापश्रमण सिंह की तरह दीक्षा लेकर सियार की तरह उसका पालन करता है। उसकी दृष्टि शरीर पर टिकी रहती है। फलत: शरीर का पोषण करने में, उसे आराम से रखने में वह रात-दिन लगा रहता है। सुबह से शाम तक यथेच्छ खाता-पीता है, आराम से सोया रहता है। उसे खाने-पीने, सोने-जागने, बैठने-उठने और चलने-फिरने का कोई विवेक नहीं होता / वह चीजों को जहां-तहाँ बिना देखे-भाले रख लेता है / उसका सारा कार्य अविवेक से और अव्यवस्थित होता है। प्राचार्य, उपाध्याय एवं गुरु के समझाने पर भी वह नहीं समझता, उलटे प्रतिवाद करता है / वह न तप करता है, न स्वाध्याय-ध्यान / रसलोलुप बन कर सरस आहार की तलाश में रहता है / वह शान्त हुए कलह को भड़काता है, पापों से नहीं डरता, यहाँ तक कि अपना स्वार्थ सिद्ध न होने पर गण और गणी को भी छोड़ देता है। प्रस्तुत अध्ययन की 1 से 4 गाथा में ज्ञानाचार में प्रमाद से, 5 वी गाथा में दर्शनाचार में प्रमाद से, 6 से 14 तक की गाथा में चारित्राचार में प्रमाद से, 15-16 गाथा में तप-प्राचार में प्रमाद से और 17 से 16 वीं गाथा तक में वीर्याचार में प्रमाद से पापश्रमण होने का निरूपण है। * अन्त में 20 वी गाथा में पापश्रमण के निन्द्य जीवन का तथा 21 वी गाथा में श्रेष्ठश्रमण के वन्य जीवन का दिग्दर्शन कराया गया है। 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org