SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 266] [उत्तराध्ययनसूत्र धर्माराम में रत एवं दान्त होकर धर्म रूप उद्यान में ही विचरण करे / यह अर्थ भी सम्भव है, क्योंकि ये दोनों गाथाएँ ब्रह्मचर्य विशुद्धि के लिए हैं।" धर्मसारथि- यहाँ भिक्षु को धर्मसारथि इसलिए वतलाया गया है कि वह स्वयं धर्म में स्थिर होकर दूसरों (गृहस्थों, श्रावक आदि) को भी धर्म में प्रवृत्त करता है, स्थिर भी करता है। ब्रह्मचर्य-महिमा 16. देव-दाणव-गन्धन्वा जक्ख-रक्खस—किन्नरा। बम्भयारि नमंसन्ति दुक्करं जे करन्ति तं // [16] देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ये सभी उस को नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता है। 17. एस धम्मे धुवे निप्रए सासए जिणदेसिए। सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण सिझिस्सन्ति तहावरे // -त्ति बेमि। [17] यह (ब्रह्मचर्यरूप) धर्म ध्र व है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है। इस धर्म के द्वारा अनेक साधक सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होंगे। ----ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–देव प्रादि शब्दों के अर्थ-देव-ज्योतिष्क और वैमानिक, दानव-भवनपति, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ये व्यन्तर विशेष हैं / उपलक्षण से अन्य व्यन्तरदेवों का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। दुष्करं कायर लोगों द्वारा कठिनता से प्राचरणीय / ध्रवादि : अर्थ ध्रुव-प्रमाण से प्रतिष्ठित, नित्य--त्रिकालसम्भवी, शाश्वत-अनवरत रहने वाला। // ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान : सोलहवां अध्ययन समाप्त // 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 430 2. वही, पत्र 430 ____ 'ठिओय ठावए परे / ' –इति वचनात् / 3. बृहद्घत्ति, पत्र 430 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy