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________________ स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा निर्जरा के लिए जो कुछ सहा जाता है, वह 'परीषह' है। परीषह के अर्थ में उपसर्ग शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परीषह का अर्थ केवल शरीर, इन्द्रिय, मन को ही कष्ट देना नहीं है, अपितु अहिंसा आदि धर्मों की पाराधना व साधना के लिए सुस्थिर बनाना है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है-सुख से भादित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिए / जमीन में वपन किया हुआ बीज तभी अंकुरित होता है, जब उसे जल की शीतलता के साथ सूर्य की ऊष्मा प्राप्त हो, वैसे ही साधना की सफलता के लिए अनुकूलता की शीतलता के साथ प्रतिकूलता की ऊष्मा भी आवश्यक है। परीषह साधक के लिए बाधक नहीं, अपितु उसकी प्रगति का ही कारण है। उत्तराध्ययन, समवायांग और तत्त्वार्थसूत्र७२ में परीषह की संख्या 22 बताई है। किन्तु संख्या की दृष्टि समान होने पर भी क्रम की दृष्टि से कुछ अन्तर है। समवायांग में परीषह के बाईस भेद इस प्रकार मिलते हैं --- 1. क्षुधा 2. पिपासा 3. शीत 4. उष्ण 5. दंश-मशक 6. अचेल 7. अरति 8. स्त्री 9. चर्या 10. निषद्या 11. शय्या 12. प्राक्रोश 13. वध 14. याचना 15. अलाभ 16. रोग 17. तृण-स्पर्श 18. जल्ल 19. सत्कार-पुरस्कार 20. ज्ञान 21. दर्शन 22. प्रज्ञा उत्तराध्ययन में 19 परीषहों के नाम व ऋम वही है, किन्तु 20, 21 व 22 के नाम में अन्तर है। उत्तराध्ययन में (20) प्रज्ञा, (21) अज्ञान और (22) दर्शन है। नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने 73 "अज्ञान" परीषह का क्वचित् श्रुति के रूप में वर्णन किया है। प्राचार्य उमास्वाति ने 4 'अचेल' परीषह के स्थान पर 'नाग्न्य' परीषह लिखा है और 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'दर्शन' परीषह लिखा है। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने७५ 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'सम्यक्त्व' परीषह माना है / दर्शन और सम्यक्त्व इन दोनों में केवल शब्द का अन्तर है, भाव का नहीं। तत्वार्थसूत्र 918 69. मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्या: परीषहाः / 70. उत्तराध्ययनसूत्र, दूसरा अध्ययन 71. समवायांग, समवाय 22 72. तत्वार्थसूत्र-९।८ 73. समवायांग 22 74. तत्त्वार्थसूत्र 99 75. प्रवचनसारोद्धार, गाथा-६८६ [33] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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