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________________ 220] [उत्तराध्ययनसूत्र ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और चित्र मुनि की गति 34. पंचालराया वि य बम्भदत्तो साहुस्स तस्स वयणं अकाउं। अणुत्तरे भुजिय कामभोगे अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो / [34] पांचाल जनपद का राजा ब्रह्मदत्त उन तपस्वी साधु चित्र मुनि के वचन का पालन नहीं कर सका। फलतः वह अनुत्तर कामभोगों का उपभोग करके अनुत्तर (सप्तम) नरक में उत्पन्न (प्रविष्ट) हुआ। 35, चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो उदग्गचारित्त-तवो महेसी। अणुत्तरं संजम पालइत्ता अणुत्तरं सिद्धिगई गो॥ —त्ति बेमि। [35] अभिलषणीय शब्दादि कामों से विरक्त, उग्रचारित्री एवं तपस्वी महर्षि चित्र भी अनुत्तर संयम का पालन करके अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) सिद्धिगति को प्राप्त हुए। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–वयणं अकाउं : भावार्थ-तपस्वी साधु चित्र मुनि के हितोपदेशदर्शक वचन का पालन वज्रतन्दुल की तरह गुरुकर्मा होने के कारण पंचाल-राजा नहीं कर सका। अणुत्तरे, अणुत्तरं : विभिन्न प्रसंगों में विभिन्न अर्थ प्रस्तुत अन्तिम दो गाथाओं में 'अनुत्तर' शब्द का चार बार प्रयोग हुआ है। प्रसंगवश इसके विभिन्न अर्थ होते हैं। चौतीसवीं गाथा में (1) प्रथम अनुत्तर शब्द कामभोगों का विशेषण है, उसका अर्थ है-सर्वोत्तम / (2) द्वितीय अनुत्तर नरक का विशेषण है, जिसका अर्थ है-समस्त नरकों से स्थिति, दुःख आदि में ज्येष्ठ, सर्वोत्कृष्ट दुःखमय अप्रतिष्ठान नामक सप्तम नरक / (3) पैंतीसवीं गाथा में प्रथम अनुत्तर शब्द संयम का विशेषण है, अर्थ है-सर्वोपरि संयम / (4) द्वितीय अनुत्तर सिद्धिगति का विशेषण है, जिसका अर्थ है--सर्वलोकाकाश के ऊपरी भाग में रही हुई, अति प्रधान मुक्ति-सिद्धिगति / // तेरहवां अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय समाप्त // 10 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 392 2. वही, पत्र 392-393 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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