________________ तेरहवां अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय] [219 सामग्री के उपभोग के लिए मुनि को आमंत्रित करता है, परन्तु तत्त्वज्ञ मुनि कहते हैं कि तुम यह मत समझो कि तुमने ही अर्थकामपोषक भोगसामग्री प्राप्त की है। मैंने भी प्राप्त की थी परन्तु मैंने उन वैषयिक सुखभोगों को दुःखबीज, जन्ममरणरूप संसारपरिवर्द्धक, दुर्गतिकारक, प्रार्तध्यान के हेतु मान कर त्याग दिया है और शाश्वत-स्वाधीन आत्मिक सुख-शान्ति के हेतुभूत त्यागप्रधान श्रेयमार्ग की ओर अपने जीवन को मोड़ लिया है। इसमें मुझे अपूर्व सुखशान्ति और प्रानन्द है। तुम भी क्षणिक भोगों को प्रासक्ति और पापकर्मों की प्रवृत्ति को छोड़ो। जीवन नाशवान् है, मृत्यु प्रतिक्षण आ रही है / अतः कम से कम पार्यकर्म करो, मार्गानुसारी बनो, सम्यग्दृष्टि तथा व्रती श्रमणोपासक बनो, जिससे कि तुम सुगति प्राप्त कर सको। माना कि तुम्हें पूर्व जन्म में प्राचरित तप, संयम एवं निदान के फलस्वरूप चक्रवर्ती की ऋद्धि एवं भोगसामग्री मिली है, परन्तु इनका उपभोग सत्कर्म में करो, आसक्तिरहित होकर इनका उपभोग करोगे तो तुम्हारी दुर्गति टल जाएगी / परन्तु ब्रह्मदत्त चक्री ने कहा-मैं यह सब जानता हुआ भी दल-दल में फंसे हुए हाथी की तरह कामभोगों में फंस कर उनके अधीन, निष्क्रिय हो गया हूँ। त्यागमार्ग के शुभपरिणामों को देखता हुआ भी उस ओर एक भी कदम नहीं बढ़ा सकता। इस प्रकार चित्र और संभूत इन दोनों का मार्ग इस छठे जन्म में अलग-अलग दो ध्र वों की ओर हो गया।' कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि-पूर्वजन्म में किये हुए अवश्य वेद्य-भोगने योग्य निकाचित कर्मों का फल अवश्य मिलता है, अर्थात्--वे कर्म अपना फल अवश्य देते हैं / बद्धकर्म कदाचित् अनुभाग द्वारा न भोगे जाएँ तो भी प्रदेशोदय से तो अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं। पंचालगणोववेयं—(१) पंचाल नामक जनपद में इन्द्रियोपकारी जो भी विशिष्ट रूपादि गुण-विषय हैं, उनसे उपेत-युक्त, (2) पंचाल में जो विशिष्ट वस्तुएँ, वे सब इस गृह में हैं। 3 नहि गोएहि वाइएहि-बत्तीस पात्रों से उपलक्षित नाटयों से या विविध अंगहारादिस्वरूप नृत्यों से, ग्राम-स्वरूप,-मूर्च्छनारूप गीतों से तथा मृदंग-मुकुंद आदि वाद्यों से / आयाणहे :--सद्विवेकी पुरुषों द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, उस चारित्रधर्म को यहां प्रादान कहा गया है। उसके लिए। कत्तारमेव अणुजाइ कम्म-आशय-कर्म कर्ता का अनुगमन करता है, अर्थात्-जिसने जो कर्म किया है, उसी को उस कर्म का फल मिलता है, दूसरे को नहीं / दूसरा कोई भी उस कर्मफल में हिस्सेदार नहीं बनता। ___ अपडिकंतस्स–उक्त निदान की आलोचना, निन्दना, गर्हणा एवं प्रायश्चित्त रूप से प्रतिक्रमणा-प्रतिनिवृत्ति नहीं की। 1. उत्तराध्ययन-मूल एवं बृहद्वृत्ति, अ. 13, गा. 0 से 32 तक का तात्पर्य, पत्र 384 से 391 तक 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 384 3. वही, पत्र 386 4. वही, पत्र 368 5. वही, पत्र 387 6. वही, पत्र 389 7. वही, पत्र 390 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org