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________________ अध्ययनों का प्रज्ञापन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए / वहाँ पर अर्थ है-बुद्ध-अवगततत्त्व, परिनिवृत्त --- शीतीभूत ज्ञातपुत्र महावीर ने इस तत्त्व का प्रज्ञापन किया है।६७ उत्तराध्ययन का महराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि इसमें भगवान् महावीर की वाणी का संगुफन सम्यक प्रकार से हरा है। यह श्रमण भगवान महावीर का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रागम है / इसमें जीव, अजीव, कर्मवाद, षट् द्रव्य, नव तत्त्व, पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा प्रभृति सभी विषयों का समुचित रूप से प्रतिपादन हुआ है। केवल धर्म कथानुयोग का ही नहीं, अपितु चारों अनुयोगों का मधुर संगम हुमा है। अतः यह भगवान महावीर की वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रागम है। इसमें वीतरागवाणी का विमल प्रवाह प्रवाहित है। इसके अर्थ के प्ररूपक भगवान महावीर हैं किन्तु सूत्र के रचयिता स्थविर होने से इसे अंगबाह्य प्रागमों में रखा है। उत्तराध्ययन शब्दत: भगवान् महावीर की अन्तिम देशना ही है, यह साधिकार तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कल्पसूत्र में उत्तराध्ययन को अपृष्ट-व्याकरण अर्थात् बिना किसी के पूछे स्वतः कथन किया हुआ शास्त्र बताया है, किन्तु वर्तमान के उत्तराध्ययन में आये हुए केशी-गौतमीय, सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन जो प्रश्नोत्तर शैली में हैं, वे चिन्तकों को चिन्तन के लिए अवश्य ही प्रेरित करते हैं / केशी-गौतमीय अध्ययन में भगवान् महावीर का जिस भक्ति और श्रद्धा के साथ गौरवपूर्ण उल्लेख है, वह भगवान स्वयं अपने लिए किस प्रकार कह सकते है ? अत: ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तराध्ययन में कुछ अंश स्थविरों ने अपनी ओर से संकलित किया हो और उन प्राचीन और अर्वाचीन अध्ययनों को वीरनिर्वाण की एक सहस्राब्दी के पश्चात् देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने संकलन कर उसे एक रूप दिया हो / 68 विनयः एक विश्लेषण प्रस्तुत प्रागम विषय-विवेचन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सूत्र का प्रारम्भ होता है.-विनय से। विनय अहंकार-शुन्यता है / अहंकार की उपस्थिति में विनय केवल औपचारिक होता है। 'वायजीद' एक सूफी सन्त थे। उनके पास एक व्यक्ति आया / उसने नमस्कार कर निवेदन किया कि कुछ जिज्ञासाएं हैं। वायजीद ने कहा-पहले झको ! उस व्यक्ति ने कहा-मैंने नमस्कार किया है, क्या आपने नहीं देखा ? वायजीद ने मुस्कराते हुए कहा---मैं शरीर को भुकाने की बात नहीं कहता / तुम्हारा अहंकार झुका है या नहीं ? उसे झकायो ! विनय और अहंकार में कहीं भी तालमेल नहीं है। ग्रह के शून्य होने से ही मानसिक, वाचिक और कायिक विनय प्रतिफलित होगा / व्यक्ति का रूपान्तरण होगा / कई बार व्यक्ति बाह्य रूप से नम्र दिखता है, किन्तु अन्दर ग्रह से अकड़ा रहता है। बिना अहंकार को जीते व्यक्ति विनम्र नहीं हो सकता / विनय का सही अर्थ है--अपने आपको अहं से मुक्त कर देना / जब अहं नष्ट होता है, तब व्यक्ति गुरु के अनुशासन को सुनता है और जो गुरु कहते हैं, उसे स्वीकार करता है / उनके वचनों की आराधना करता है / अपने मन को अाग्रह से मुक्त करता है। विनीत शिष्य को यह परिबोध होता है कि किस प्रकार बोलना, किस प्रकार बैठना, किस प्रकार खड़े होना चाहिए? वह प्रत्येक बात पर गहराई से चिन्तन करता है। आज जन-जीवन में अशान्ति और अनु 67. इत्येवंरूप पाउकरे' त्ति प्रादुरकापीत्-प्रकटितवान् 'बुद्ध.' अवगततत्त्वः सन् ज्ञात एव ज्ञातक: जगत्प्रतीतः क्षत्रियो वा, स चेह प्रस्तावान्महावीर एव, परिनिवृत्तः कषायानल विध्यापनात्समन्ताच्छीतीभूतः / / ------उत्तराध्ययन बहदवत्ति, पत्र 484 68. (क) दसवेनालियं तह उत्तरज्झयणाणि की भूमिका (प्राचार्य श्री तुलसी) (ख) उत्तराध्ययनमूत्र–उपाध्याय अमरमुनि की भूमिका [ 31 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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