________________ अंगपण्णत्ती में वर्णन है कि बाईस परीषहों और चार प्रकार के उपसर्गों के सहन का विधान, उसका फल तथा प्रश्नों का उत्तर; यह उत्तराध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है।५५ हरिवंशपुराण में प्राचार्य जिनसेन ने लिखा है कि उत्तराध्ययन में वीर-निर्वाण गमन का वर्णन है।५६ दिगम्बर साहित्य में जो उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का निर्देश है, वह वर्णन वर्तमान में उपलब्ध उत्तराध्ययन में नहीं है / आंशिक रूप से अंगपण्णत्ती का विषय मिलता है, जैसे (1) बाईस परीषहों के सहन करने का वर्णन--दुसरे अध्ययन में। (2) प्रश्नों के उत्तर--उनतीसवाँ अध्ययन / प्रायश्चित्त का विधान और भगवान महावीर के निर्वाण का वर्णन उत्तराध्ययन में प्राप्त नहीं है। यह हो सकता है कि उन्हें उत्तराध्ययन का अन्य कोई संस्करण प्राप्त रहा हो। तत्त्वार्थराजवार्तिक में उत्तराध्ययन को आरातीय प्राचार्यों [गणधरों के पश्चात् के प्राचार्यों की रचना माना है।५७ समवायांग'८ और उत्तराध्ययननियंक्ति आदि में उत्तराध्ययन की जो विषय-सूची दी गई है, वह उत्तराध्ययन में ज्यों की त्यों प्राप्त होती है। अतः यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन की विषय-वस्त प्राचीन है। वीर-निर्वाण की प्रथम शताब्दी में दशवकालिक सूत्र की रचना हो चुकी थी। उत्तराध्ययन दशवकालिक के पहले की रचना है, वह पाचारांग के पश्चात् पढ़ा जाता था, अतः इसकी संकलना वीरनिर्वाण की प्रथम शताब्दी के पूर्वाद्ध में ही हो चुकी थी। क्या उत्तराध्ययन भगवान महावीर को अन्तिम वाणी है ? अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या उत्तराध्ययन श्रमण भगवान महावीर की अन्तिम वाणी है ? उत्तर में निवेदन है कि श्रुतकेवली भद्रबाहस्वामी ने कल्पसूत्र में लिखा है कि श्रमण भगवान महावीर कल्याणफलविपाक वाले पचपन अध्ययनों और पाप-फल वाले पचपन अध्ययनों एवं छत्तीस अपृष्ट-व्याकरणों का व्याकरण कर प्रधान नामक अध्ययन का प्ररूपण करते-करते सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गये / इसी आधार से यह माना जाता है कि छत्तीस अपृष्ट-व्याकरण उत्तराध्ययन के ही छत्तीस अध्ययन हैं। . उत्सराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन को अन्तिम गाथा से भी प्रस्तुत कथन की पुष्टि होती है "इइ पाउकरे बुद्ध नायए परिनिव्वुए / छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए // " 55. उत्तराणि अहिज्जति उत्तरज्झयणं पदं जिणिदेहि / बाबीसपरीसहाणं उसग्गाणं त्र सहणविहिं / / बण्णे दि तप्फलमवि, एवं पण्हे च उत्तरं एवं / कहदि गुरुसीसयाण पइण्णिय अट्ठमं तु ख। --अंगपण्णत्ति, 3525-26 उत्तराध्ययन वीर-निर्वाणगमन तथा / -हरिवंशपुराण, 10 / 134 57. यद्गणधर शिष्यप्रशिष्यै रारातीय र धिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्ध संक्षिप्तांगार्थवचनविन्यासं तदंगबाह्यम .."तदभेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः / -- तत्त्वार्थवार्तिक, 1120 पृष्ठ 78 58. समवायांग, 36 वाँ समवाय 59. उत्तराध्ययननियुक्ति 18-26 60. कल्पसूत्र 146, पृष्ठ 210, देवेन्द्र मुनि सम्पादित [ 29 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org