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________________ 188 [उत्तराध्ययनसूत्र परिजन उसकी कुरूपता देख कर घृणा करने लगे। साथ ही ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता गया, त्यों-त्यों उसका स्वभाव भी क्रोधी और झगड़ालू बनता गया। वह हर किसी से लड़ पड़ता और गालियाँ बकता / यहाँ तक कि माता-पिता भी उसके कटु व्यवहार और उग्र स्वभाव से परेशान हो गए। एक दिन वसंतोत्सव के अवसर पर सभी लोग एकत्रित हुए। अनेक बालक खेल खेलने में लगे हुए थे। उपद्रवी हरिकेशबल जब बालकों के उस खेल में सम्मिलित होने लगा तो वृद्धों ने उसे खेलने नहीं दिया। इससे गुस्से में आकर वह सबको गालियाँ देने लगा। सबने उसे वहाँ से निकालकर दूर बैठा दिया। अपमानित हरिकेशबल अकेला लाचार और दःखित हो कर बैठ गया / इतने में ही वहाँ एक भयंकर काला विषधर निकला / चाण्डालों ने उसे 'दुष्टसर्प है' यह कह कर मार डाला। थोड़ी देर बाद एक अलशिक (दुमुही) जाति का निर्विष सर्प निकला। लोगों ने उसे विषरहित कह कर छोड़ दिया। इन दोनों घटनाओं को दूर बैठे हरिकेशबल ने देखा / उसने चिन्तन किया कि 'प्राणी अपने ही दोषों से दुःख पाता है, अपने ही गुणों से प्रीतिभाजन बनता है। मेरे सामने ही मेरे बन्धुजनों ने विषले सांप को मार दिया और निविष की रक्षा की, नहीं मारा। मेरे बन्धुजन मेरे दोषयुक्त व्यवहार के कारण ही मुझ से घृणा करते हैं। मैं सबका अप्रीतिभाजन बना हुआ हूँ। यदि मैं भी दोषरहित बन जाऊँ तो सबका प्रीतिभाजन बन सकता हूँ।' यों विचार करते-करते उसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ / उसके समक्ष मनुष्यभव में कृत जातिमद एवं रूपमद का चित्र तैरने लगा। उसी समय उसे विरक्ति हो गई और उसने किसी मुनि के पास जा कर भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। उसकी धर्मसाधना में जाति अवरोध नहीं डाल सकी। __ मूनि हरिकेशबल ने कर्मक्षय करने के लिये तीव्र तपश्चर्या की। एक बार विहार करते हए वे वाराणसी पहुंचे। वहाँ तिकवन में एक विशिष्ट तिन्दुकवृक्ष के नीचे वे ठहर गए और वहीं मासखमण-तपश्चर्या करने लगे / इनके उत्कृष्ट गुणों से प्रभावित हो कर गण्डीतिन्दुक नामक एक यक्षराज उनकी वैयावृत्य करने लगा / एक बार नगरी के राजा कौशलिक की भद्रा नाम की राजपुत्री पूजनसामग्री लेकर अपनी सखियों सहित उस तिन्दुकयक्ष की पूजा करने वहाँ आई। उसने यक्ष की प्रदक्षिणा करते हुए मलिन वस्त्र और गंदे शरीर वाले कुरूप मुनि को देखा तो मुंह मचकोड़ कर घृणाभाव से उन पर थूक दिया / यक्ष ने राजपुत्री का यह असभ्य व्यवहार देखा तो कुपित हो कर शीघ्र ही उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया। यक्षाविष्ट राजपुत्री पागलों की तरह असम्बद्ध प्रलाप एवं विकृत चेष्टाएँ करने लगी। सखियाँ उसे बड़ी मुश्किल से राजमहल में लाई। राजा उसकी यह स्थिति देख कर अत्यन्त चिन्तित हो गया। अनेक उपचार होने लगे; किन्तु सभी निष्फल हुए। राजा और मंत्री विचारमूढ़ हो गए कि अब क्या किया जाए ? इतने में ही यक्ष किसी के शरीर में प्रविष्ट हो कर बोला-'इस कन्या ने घोर तपस्वी महामुनि का घोर अपमान किया है, अतः मैंने उसका चखाने के लिए इसे पागल कर दिया है। अगर आप इसे जीवित देखना चाहते हैं तो इस अपराध के प्रायश्चित्तस्वरूप उन्हीं मुनि के साथ इसका विवाह कर दीजिए। अगर राजा ने यह विवाह स्वीकार नहीं किया तो मैं राजपुत्री को जीवित नहीं रहने दूंगा।' . राजा ने सोचा-यदि मुनि के साथ विवाह कर देने से यह जीवित रहती है तो हमें क्या आपत्ति है ? राजा ने यह बात स्वीकार कर ली और मुनि की सेवा में पहुँच कर अपने अपराध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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