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________________ 186] [उत्तराध्ययनसूत्र सुमहं मंदरे गिरी, नाणोसहिपज्जलिए-चूणि के अनुसार मंदर पर्वत स्थिर और सबसे ऊँचा पर्वत है। यहीं से दिशाओं का प्रारम्भ होता है। उसे यहाँ नाना प्रकार की ओषधियों से प्रज्वलित कहा गया है / वहाँ कई अओषधियाँ ऐसी हैं, जो जाज्वल्यमान प्रकाश करती हैं, उनके योग से मन्दरपर्वत भी प्रज्वलित होता है।' बहुश्रुतता का फल एवं बहुश्रुतता प्राप्ति का उपदेश 31. समुद्दगम्भीरसमा दुरासया अचक्किया केणइ दुप्पहंसया। सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया / [31] सागर के समान गम्भीर, दुरासद (जिनका पराभूत होना दुष्कर है), (परीषहादि से) अविचलित, परवादियों द्वारा अत्रासित अर्थात् अजेय, विपुल श्रुतज्ञान से परिपूर्ण और त्राता (षट्कायरक्षक)-ऐसे बहुश्रुत मुनि कर्मों का सर्वथा क्षय करके उत्तमगति (मोक्ष) में पहुँचे / / 32. तम्हा सुयमहिट्ठिज्जा उत्तमट्ठगवेसए / जेणऽप्पाणं परं चेव सिद्धि संपाउणेज्जासि / / . -त्ति बेमि। [32] (बहुश्रुतता मुक्ति प्राप्त कराने वाली है, इसलिए उत्तमार्थ (मोक्ष-पुरुषार्थ) का अन्वेषक श्रुत (आगम) का (अध्ययन-श्रवण-चिन्तनादि के द्वारा) आश्रय ले, जिससे (श्रुत के प्राश्रय से) वह स्वयं को और दूसरे साधकों को भी सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करा सके। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-समुद्दगंभीरसमा-गम्भीरसमुद्रसम-गहरे समुद्र के समान जो बहुश्रुत अध्यात्मतत्त्व में गहरे उतरे हुए हैं। दुरासया-दुष्पराजेय / अचक्किया-अचकिता : दो अर्थ-(१) परीषहादि से अचक्रित-अविचलित, अथवा (2) परवादियों से अत्रासित--निर्भय / उत्तमं गई गया-उत्तम-प्रधान गति-मोक्ष को प्राप्त हुए। उत्तमट्टगवेसए-उत्तम अर्थ-प्रयोजन या पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष का अन्वेषक 12 // बहुश्रुत-पूजा : ग्यारहवाँ अध्ययन समाप्त / –उत्त. चणि, प. 200 1. (क) 'जहा मंदरो थिरो उस्सियो, दिसायो य अत्थ पवत्तंति।' (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 352 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 353 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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