________________ 184] [उत्तराध्ययनसूत्र या मंगलपाठकों (बंदिरों) की पाशीर्वचनात्मक ध्वनि / बहुश्रुत भी इसी प्रकार जिनप्रवचनरूपी अश्वाश्रित होकर अभिमानी परवादियों के दर्शन से अत्रस्त और उन्हें जीतने में समर्थ होता है। दोनों ओर के अर्थात-दिन और रात अथवा अगल-बगल में शिष्यों के स्वाध्यायरूपी नन्दिघोष से युक्त होता है। कुजरे सद्विहायणे-साठ वर्ष का हाथी / अभिप्राय यह है कि साठ वर्ष की आयु तक हाथी का बल प्रतिवर्ष उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है, उसके पश्चात् कम होने लगता है। इसलिए यहाँ हाथी को पूर्ण बलवत्ता बताने के लिए 'षष्ठिवर्षे' का उल्लेख किया गया है / जायखंधे-जातस्कन्ध-जिस वृषभ का कंधा अत्यन्त पुष्ट हो गया हो, बह जातस्कन्ध कहलाता है / कन्धा परिपुष्ट होने पर उसके दूसरे सभी अंगोपांगों की परिपुष्टता उपलक्षित होती है।' उदग्गे मियाण पवरे-उदग्र : दो अर्थ-(१) उत्कट, (2) अथवा उदग्र वय--पूर्ण युवावस्था को प्राप्त, मियाण पवरे का अर्थ है--वन्य पशुओं में श्रेष्ठ / चाउरते-चातुरन्त : दो अर्थ-(१) जिसके राज्य में एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और शेष तीन दिगन्तों में समुद्र हो, वह चातुरन्त होता है अथवा (2) हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल इन चारों सेनाओं के द्वारा शत्रु का अन्त करने वाला चातुरन्त है। चक्कवट्टी : चक्रवर्ती---षट्खण्डों का अधिपति चक्रवर्ती कहलाता है / चउद्दसरयणाहिवई-चतुर्दशरत्नाधिपति-चक्रवर्ती चौदह रत्नों का स्वामी होता है / चक्रवर्ती के 14 रत्न ये हैं—(१) सेनापति, (2) गाथापति, (3) पुरोहित, (4) गज, (5) अश्व, (6) बढ़ई, (7) स्त्री, (8) चक्र, (6) छत्र, (10) चर्म, (11) मणि, (12) काकिणी, (13) खड्ग और (14) दण्ड / सहस्सक्खे--सहस्राक्ष : दो भावार्थ-(१) इन्द्र के पांच सौ देव मंत्री होते हैं। राजा मंत्री की आँखों से देखता है, अर्थात् इन्द्र उनकी दृष्टि से अपनी नीति निर्धारित करता है, इसलिए वह सहस्राक्ष कहलाता है / (2) जितना हजार आँखों से दीखता है, इन्द्र उससे अधिक अपनी दो आँखों से देख लेता है, इसलिए वह सहस्राक्ष है। यह अर्थ वैसे ही आलंकारिक है, जैसे कि चतुष्कर्ण-- चौकन्ना शब्द अधिक सावधान रहने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पुरंदरे : भावार्थ-पुराण में इस सम्बन्ध में एक कथा है कि इन्द्र ने शत्रुनों के पुरों का विदारण किया था, इस कारण उसका नाम 'पुरन्दर' पड़ा / ऋग्वेद में दस्युनों अथवा दासों के पुरों 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 349 (ख) हायणं वरिसं, सद्विवरसे परं बलहीणो, अपत्तबलो परेण परिहाति। -उत्तरा. चणि, पृ 199 (ग) षष्टिहायन:--पष्टिवर्षप्रमाणः तस्य हि एतावत्कालं यावत् प्रतिवर्ष बलोपचयः ततस्तदपचयः, इत्येव मुक्तम् / ' –उत्तरा. बहद्वत्ति, पत्र 349 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 350 --सेणावइ गाहावइ पुरोहिय, गय तुरंग वड्ढग इत्थी। चक्कं छत्तं चम्म मणि, कागिणी खुग्ग दंडोस / ----'चतुर्दशरत्नानि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org