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________________ ग्यारहवां अध्ययन : बहुश्रु तपूजा] [183 भागी होता है, दर्शन और चारित्र में स्थिरतर होता है, वे धन्य हैं, जो जीवनपर्यन्त गुरुकुल नहीं छोड़ते।'' जोगवं-योगवान्—योग के 5 अर्थ : विभिन्न सन्दर्भो में—(१) मन, वचन और काया का व्यापार, (2) संयमयोग, (3) अध्ययन में उद्योग, (4) धर्मविषयक प्रशस्त प्रवृत्ति और (5) समाधि / प्रस्तुत प्रसंग में योगवान् का अर्थ है-समाधिमान् अथवा प्रशस्त मन, वचन, काया के योग-व्यापार से युक्त / दुहओ बि विरायइ : व्याख्या-शंख में रखा हुआ दूध दोनों प्रकार से सुशोभित होता हैनिजगुण से और शंखसम्बन्धी गुण से / दूध स्वयं स्वच्छ होता है, जब वह शंख जैसे स्वच्छ पात्र में रखा जाता है तब और अधिक स्वच्छ प्रतीत होता है / शंख में रखा हुआ दूध न तो खट्टा होता है और न झरता है। बहुस्सुए भिक्खू धम्मो कित्ती तहा सुयं : दो व्याख्याएँ-(१) बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति तथा श्रुत अबाधित (सुशोभित) रहते हैं। तात्पर्य यह है कि यों तो धर्म, कीति और श्रुत ये तीनों स्वयं ही निर्मल होने से सुशोभित होते हैं तथापि मिथ्यात्व आदि कालुष्य दूर होने से निर्मलता आदि गुणों से शंखसदृश उज्ज्वल बहुश्रुत के आश्रय में रहे हुए ये गुण (आश्रय के गुणों के कारण) विशेष प्रकार से सुशोभित होते हैं तथा बहश्रत में रहे हए ये धर्मादि गुण मलिनता, विकृति या हानि को प्राप्त नहीं होते—अबाधित रहते हैं / (2) योग्य भिक्षुरूपी भाजन में ज्ञान देने वाले बहुश्रुत को धर्म होता है, उसकी कीर्ति होती है, श्रुत पाराधित या अबाधित होता है / आइण्णे कथए : आकोण का अर्थ- शील, रूप, बल आदि गुणों से आकीर्ण व्याप्त, जातिमान् / कन्थक--(१) पत्थरों के टुकड़ों से भरे हुए कुप्पों के गिरने की आवाज से जो भयभीत नहीं होता, (2) जो खड़खड़ाहट से नहीं चौंकता या पर्वतों के विषममार्ग में या विकट युद्धभूमि में जाने से या शस्त्रप्रहार से नहीं हिचकिचाता; ऐसा श्रेष्ठ जाति का घोड़ा। नंदिघोसेणं-नन्दिघोष : दो अर्थ-बारह प्रकार के वाद्यों की एक साथ होने वाली ध्वनि 1. (क) बृहदृवृत्ति, पत्र 347 (ख) उत्तरा. चूणि, पृष्ठ 198 : 'णाणस्स होइ भागी, थिरयरो दंसणे चरित्ते य / धन्ना प्रावकहाए, गुरुकुलवास न मुचंति // ' 2. (क) उत्तरा. चुणि, पृ. 198 : 'जोगो मणजोगादि संजमजोगो उज्जोमं पठितव्वते करेइ / ' (ख) योजनं योगो-व्यापार: स चेह प्रक्रमाद् धर्मगत एव, तद्वान् अतिशायने मतुप / यद्वा योगः-समाधिः, सोऽस्यास्तीति योगवान् / ' -बृहद्वत्ति, पत्र 347 (ग) 'मोक्खेण जोयणायो जोगो, सम्वोवि धम्मवावारो।' --योगविशिका-१ 3. (क) उत्तरा चणि, पृ. 198 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 348 . 4. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 198 (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र 348 (ग) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 2, पृ.५४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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