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________________ इक्कारसमं अज्झयणं : ग्यारहवाँ अध्ययन बहुस्सुयपूया : बहुश्रुतपूजा अध्ययन का उपक्रम 1. संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो। आयारं पाउकरिस्सामि आणुपुन्धि सुणेह मे // [1] जो (बाह्य और आभ्यन्तर) संयोग से सर्वथा मुक्त, अनगार (गृहत्यागी) भिक्षु है, उसके प्राचार को अनुक्रम से प्रकट करूंगा, (उसे) मुझ से सुनो। विवेचन–प्रायारं-आचार शब्द यहाँ उचित क्रिया या विनय के अर्थ में है। वृद्धव्याख्यानुसार विनय और प्राचार दोनों एकार्थक हैं / प्रस्तुत प्रसंग में 'बहुश्रुतपूजात्मक आचार' ही ग्रहण किया गया है। प्रबहुश्रुत का स्वरूप 2. जे यावि होइ निविज्जे थद्ध लुद्ध अणिग्गहे / __ अभिक्खणं उल्लवई अविणीए प्रबहुस्सुए। [2] जो विद्यारहित है, विद्यावान् होते हुए भी अहंकारी है, जो (रसादि में) लुब्ध (गृद्ध) है, जो अजितेन्द्रिय है, बार-बार असम्बद्ध बोलता (बकता) है तथा जो अविनीत है, वह अबहुश्रुत है। विवेचन निविध और सविद्य--निविद्य का अर्थ है-सम्यक शास्त्रज्ञानरूप विद्या से विहीन / 'अपि' शब्द के आधार पर विद्यावान् का भी उल्लेख किया गया है / अर्थात् जो विद्यावान होते हुए भी स्तब्धता, लुब्धता, अजितेन्द्रियता, असम्बद्धभाषिता एवं अविनीतता आदि दोषों से युक्त है, वह भी अबहुश्रुत है, क्योंकि स्तब्धता आदि दोषों से उसमें बहुश्रुतता के फल का अभाव है।' अबहुश्रुतता और बहुश्रुतता को प्राप्ति के कारण 3. अह पंचहि ठाणेहि जेहि सिक्खा न लगभई। थम्भा कोहा पमाएणं रोगेणाऽऽलस्सएण य॥ [3] पांच स्थानों (कारणों) से (ग्रहणात्मिका और प्रासेवनात्मिका) शिक्षा प्राप्त नहीं होती, (वे इस प्रकार हैं--) (1) अभिमान, (2) क्रोध, (3) प्रमाद, (4) रोग और (4) प्रालस्य / (इन्हीं पांच कारणों से अबहुश्रुतता होती है।) 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 344 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 344 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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