________________ विषयवस्तु की दृष्टि से उत्तराध्ययन के अध्ययन धर्मकथात्मक, उपदेशात्मक, प्राचारात्मक और सैद्धान्तिक, इन चार भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। जैसे (1) धर्मकथात्मक-७, 8, 9, 12, 13, 14, 18, 19, 20, 21, 22, 23, 25 और 27 (2) उपदेशात्मक ---1, 3, 4, 5, 6 और 10 (3) आचारात्मक-२, 11, 15, 16, 17, 24, 26, 32 और 35 (4) सैद्धान्तिक--२८, 29, 30, 31, 33, 34 और 36 / / विक्रम की प्रथम शती में प्रार्यरक्षित ने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया / उसमें उत्तराध्ययन को धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत गिना है। 43 उत्तराध्ययन में धर्मकथानयोग की प्रधानता होने से जिनदासगणी महत्तर ने उसे धर्मकथानुयोग माना है,४४ पर आचारात्मक अध्ययनों को चरणकरणानुयोग में और सैद्धान्तिक अध्ययनों को द्रव्यानुयोग में सहज रूप से ले सकते हैं। उत्तराध्ययन का जो वर्तमान रूप है, उसमें अनेक अनुयोग मिले हुए हैं। कितने ही विज्ञों का यह भी मानना है कि कल्पसूत्र के अनुसार उत्तराध्ययन को प्ररूपमा भगवान् महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व पावापुरी में की थी।४५ इससे यह सिद्ध है कि भगवान के द्वारा यह प्ररूपित है, इसलिए इसकी परिगणना अङ्ग-साहित्य में होनी चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र को अन्तिम गाथा को कितने ही टीकाकार इसी आशय को व्यक्त करने वाली मानते हैं—'उत्तराध्ययन का कथन करते हए भगवान महावीर परिनिर्वाण को प्राप्त हए।' यह प्रश्न काफी गम्भीर है। इसका सहज रूप से समाधान होना कठिन है / तथापि इतना कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन के कितने ही अध्ययनों की भगवान महावीर ने प्ररूपणा की थी और कितने ही अध्ययन बाद में स्थविरों के द्वारा संकलित हए। उदाहरण के रूप में--केशी-गौतमीय अध्ययन में श्रमण भगवान महावीर का अत्यन्त श्रद्धा के साथ उल्लेख हुआ है। स्वयं भगवान महावीर अपने ही मुखारविन्द से अपनी प्रशंसा कैसे करते ? उनतीसवें अध्ययन में प्रश्नोत्तरशैली है, जो परिनिर्वाण के समय सम्भव नहीं है। क्योंकि कल्पसूत्र में उत्तराध्ययन को अपृष्ठव्याकरण अर्थात् बिना किसी के पूछे कथन किया हुआ शास्त्र कहा है। कितने ही आधुनिक चिन्तकों का यह भी अभिमत है कि उत्तराध्ययन के पहले के अठारह अध्ययन प्राचीन हैं और उसके बाद के अठारह अध्ययन अर्वाचीन हैं। किन्तु अपने मन्तव्य को सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्रमाण नहीं दिये हैं। कितने ही विद्वान यह भी मानते हैं कि अठारह अध्ययन तो अर्वाचीन नहीं है। हाँ, उनमें से कुछ अर्वाचीन हो सकते हैं। जैसे-इकतीसवें अध्ययन में आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रादि प्राचीन नामों के साथ दशाश्रुतस्कंध, बहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ जैसे अर्वाचीन भागमों के नाम भी मिलते हैं। जो श्रुत४३. अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः। -उत्तराध्ययनचूणि, पृष्ठ 9 44. उत्तराध्ययनचूणि, पृष्ठ 9 45. कल्पसूत्र 46. तेवीसइ सूयगडे रूवाहिएसु सुरेसु अ। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // पणवीसभावणाहिं उद्देसेसु दसाइणं / जे भिक्ख जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले / / अणगारगुणेहिं च पकप्पम्मि तहेव य। जे भिक्ख जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले // -उत्तरा. 31116-18 [ 27 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org