________________ दशम अध्ययन :मपत्रक] [167 मिलक्खुया-म्लेच्छाः-पर्वत आदि की खोहों या बीहड़ों में रहने वाले एवं जिनकी भाषा को आर्य भलीभांति न समझ सकें, वे म्लेच्छ हैं। शक, यवन, शबर, पुलिंद, नाहल, नेष्ट, करट, भट, माल, भिल्ल, किरात आदि सब म्लेच्छजातीय कहलाते हैं। ये सब धर्म-अधर्म, गम्य-अगम्य, भक्ष्यअभक्ष्य प्रादि सभी आर्य व्यवहारों से रहित, संस्कारहीन होते हैं।' कुतिथिनिसेवए-कुतीथिक का लक्षण बहदवत्ति के अनुसार यह है कि जो सत्कार, यश ग्रादि पाने के अभिलाषी हों तथा इसके लिए जो प्राणियों को प्रिय मनोज्ञ विषयादिसेवन का ही उपदेश देते हों, ताकि लोग अधिक से अधिक आकर्षित हों, उन्हें कुछ त्याग, तप, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि करना न पड़े। यही कारण है कि कुतीर्थी जनों के उपासक को शुद्ध एवं उत्तम धर्मश्रवण का अवसर ही नहीं मिलता।' मिच्छत्तनिसेवए-मिथ्यात्वनिषेवक का तात्पर्य है-अतत्त्व में तत्त्वरुचि मिथ्यात्व है। जीव अनादिकालिक भवों से अभ्यस्त होने से तथा गुरुकर्मा होने से प्रायः मिथ्यात्व में ही प्रवृत्त रहते हैं / इसलिए मिथ्यात्व का सेवन करने वाले बहुत-से लोग हैं। इन्द्रियबल की क्षीणता बता कर प्रमादत्याग का उपदेश 21. परिजूरइ ते सरीरयं केसा पण्डुरया हवन्ति ते / से सोयबले य हायई समयं गोयम ! मा पमायए / [21] गौतम ! तुम्हारा शरीर (प्रतिक्षण वय घटते जाने से) सब प्रकार से जीर्ण हो रहा है, तुम्हारे केश भी 'वृद्धावस्था के कारण) सफेद हो रहे हैं तथा पहले जो श्रोत्रवल (श्रवणशक्ति) था, वह क्षीण हो रहा है / अतः एक क्षण भी प्रमाद मत करो। 22. परिजरइ ते सरीरयं केसा पण्ड्रया हवन्ति ते / से चक्खुबले य हायई समयं गोयम ! मा पमायए // [22] तुम्हारा शरीर सब प्रकार से जीर्ण हो रहा है, तुम्हारे सिर के बाल सफेद हो रहे हैं तथा पूर्ववर्ती नेत्रबल (आँखों का सामर्थ्य) क्षीण हो रहा है। अतः हे गौतम ! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। 1. (क) तत्त्वार्थ. (पं. सुखलालजी), अ. 3115, पृ. 93 (ख) बृहद्धृत्ति, पत्र 337 (ग) 'पुलिदा नाहला, नेष्टाः शबरा: करटा भटाः, माला, भिल्ला किराताश्च सर्वेऽपि म्लेच्छजातयः / —उत्त. प्रियदर्शिनी, भा. 2, पृ. 487 2. कुतीथिनो हि यश सत्काराद्येषिणो यदेव प्राणिप्रियं विषयादि तदेवोपदिशन्ति...." इति सुकरैव तेषां सेवा, तत्से विनां च कुत उत्तमधर्मश्रुतिः 1' बृहद्वृत्ति, पत्र 337 मिथ्याभावी मिथ्यात्वं-तत्त्वेऽपि तत्त्वप्रत्ययरूपं तं निषेवते यः स मिथ्यात्वनिषेवको। जनो-लोको अनादि भवाऽभ्यस्ततया गुरुकर्मतया च तत्रैव च प्रायः प्रवृत्तेः। -बृहद्वृत्ति, पत्र 337 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org