________________ नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या] [143 14. मतिर होते हैं, जैसे-ज्ञानादि गुण ! भवन एवं अन्तःपुर आपके हैं, इस कारण इनका रक्षण करना चाहिए / ये क्रमशः हेतु और कारण हैं / ' नमि राजर्षि के उत्तर का आशय ---इस संसार में एक मेरे (आत्मा के) सिवाय और कोई वस्त (स्त्री. पत्र, अन्तःपर, भवन, शरीर, धन प्रादि) मेरी नहीं है। यहाँ किसी प्राणी की कोई भी वस्तु नहीं है। मेरी जो वस्तु है, वह (प्रात्मा तथा आत्मा के ज्ञानादि निजगूण) मेरे पास है। जो अपनी होती है, उसी की रक्षा अग्नि-जलादि के उपद्रवों से की जाती है / जो अपनी नहीं होती, उसे मिथ्याज्ञानवश अपनी मान कर कौन अकिंचन, नियापार, गृहत्यागी भिक्षु दुःखी होगा? जैसे कि कहा है एकोऽहं न मे कश्चित् स्वः परो वापि विद्यते। यदेको जायते जन्तुम्रियते चैक एव हि / / एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुतो। सेसा मे बाहिरा भावा, सब्वे संजोगलक्खणा // अतः अन्तपुरादि पक्ष में स्वत्वरूप हेतु का सद्भाव न रहने से इन्द्रोक्त हेतु प्रसिद्ध है और रक्षणीय होने से इनका त्याग न करने रूप कारण भी यथार्थ नहीं है / वस्तुतः अभिनिष्क्रमण के लिए ये सब संयोगजनित बन्धन त्याज्य हैं, परिग्रह नरक आदि अनर्थ का हेतु होने से मोक्षाभिलाषी द्वारा त्याज्य है। भई-भद्र शब्द कल्याण और सुख तथा प्रानन्द-मंगल अर्थ में प्रयुक्त होता है / पियं अप्पियं—प्रिय अप्रिय शब्द यहाँ इष्ट और अनिष्ट अर्थ में है / एक को इष्ट-प्रिय और दूसरे को अनिष्ट -अप्रिय मानने से राग-द्वेष होता है, जो दुःख का कारण है।' तृतीय प्रश्नोत्तर : नगर को सुरक्षित एवं अजेय बनाने के सम्बन्ध में 17. एयमढं निसामित्ता हेउकारण-चोइओ / तओ नमि रायरिसि देविन्दो इणमब्बवी-॥ [17] इस बात को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने तब नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा 18. 'पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणि य। उस्सूलग—सयग्घीयो तओ गच्छसि खत्तिया ! // ' [18] हे क्षत्रिय ! पहले तुम प्राकार (- परकोटा), गोपुर (मुख्य दरवाजा), अट्टालिकाएँ, दुर्ग की खाई, शतघ्नियां (किले के द्वार पर चढ़ाई हुई तोपें) बनवा कर, फिर प्रजित होना / 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 310 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 384 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 310 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 385-386 3. (क) 'भद्र कल्याणं सुखं च / ' (ख) प्रियमिष्टं, अप्रियमनिष्टम् / ' ---बृ. व., पत्र 310 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org