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________________ नवम अध्ययन : नमिप्रवज्या] [141 यही हेतु और कारण में अन्तर है। इन्द्रोक्त वाक्य में हेतु इस प्रकार है--आपका यह अभिनिष्क्रमण अनुचित है, क्योंकि इससे समस्त नगरी में आक्रन्द, विलाप एवं दारुण कोलाहल हो रहा है। कारण इस प्रकार है-यदि आप अभिनिष्क्रमण न करते तो इतना हृदयविदारक कोलाहल न होता। इस हृदयविदारक कोलाहल का कारण आपका अभिनिष्क्रमण है / इस हेतु और कारण से प्रेरित / ' चेइए वच्छे-यहाँ चैत्य और वृक्ष, दो शब्द हैं / चैत्य का प्रसंगवश अर्थ है-उद्यान, जो चित्त का आह्लादक है / उसी चैत्य (उद्यान) का एक वृक्ष / बहूणं बहुगुणे : व्याख्या-बहुतों का-प्रसंगवश बहुत-से पक्षियों का। बहुगुण-जिससे बहुत गुण--फलादि के कारण प्रचुर उपकार हो, वह ; अर्थात् अत्यन्त उपकारक / ' प्रस्तुत उत्तर : उपमात्मक शब्दों में यहाँ नमि राजषि ने मिथिला नगरी स्थित चैत्यउद्यान से राजभवन को, स्वयं को मनोरम वृक्ष से तथा उस वृक्ष पर आश्रय पाने वाले पुरजनपरिजनों को पक्षियों से उपमित किया है। वृक्ष के उखड़ जाने पर जैसे पक्षिगण हृदयविदारक क्रन्दन करते हैं, वैसे ही ये पुरजन-परिजन प्राक्रन्द कर रहे हैं।' नमि राजर्षि के उत्तर का हार्द आक्रन्द आदि दारुण शब्दों का कारण मेरा अभिनिष्क्रमण नहीं है, इसलिए यह हेतु प्रसिद्ध है / पौरजन-स्वजनों के प्राक्रन्दादि दारुण शब्दों का हेतु तो और ही है, वह है स्व-स्व-प्रयोजन (स्वार्थ) का विनाश / कहा भी है आत्मार्थ सोदमानं स्वजनपरिजनो रौति हाहा रवार्ता, भार्या चात्मोपभोगं गृहविभवसुखं स्वं वयस्याश्च कार्यम् / कन्दत्यन्योन्यमन्यस्त्विह हि बहुजनो लोकयात्रानिमित्तं, यश्चान्यस्तत्र किञ्चित् मृगयति हि गुणं रोदितीष्टः स तस्मै // अर्थात--स्वजन-परिजन या पौरजन अपने स्वार्थ के नाश होने के कारण, पत्नी अपने विषयभोग, गृहवैभव के सुख और धन के लिए, मित्र अपने कार्य रूप स्वार्थ के लिए, बहुत-से लोग इस जगत् में लोकयात्रा (आजीविका) निमित्त परस्पर एक दूसरे के अभीष्ट स्वार्थ के लिए रोते हैं। जो जिससे किसी भी गुण-(लाभ या उपकार) की अपेक्षा रखता है, वह इष्टजन उसके विनाश के लिए ही रोता है / अतः मेरा यह अभिनिष्क्रमण, उनके क्रन्दन का हेतु कैसे हो सकता है ! न ही मेरा यह अभिनिष्क्रमण, क्रन्दनादि कार्य का नियत पूर्ववर्ती कारण है। वस्तुतः अभिनिष्क्रमण (संयम) किसी के लिए भी पीड़ाजनक नहीं होता, क्योंकि वह षटकायिक जीवों की रक्षा के हेतु होता है। 1. (क) 'निश्चितान्यथाऽनुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः।' -प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 11 (ख) 'कार्यादव्यवहितप्राक्क्षणवतित्वं कारणत्वम्।' -तर्कसंग्रह (ग) बृहद्वत्ति, पत्र 309 2. (क) बृहृवृत्ति, पत्रांक 309 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 377 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 309 (क) वही. पत्र 309 (ख) उत्त. प्रियशिनीटीका, भा. 2.1.379 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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