________________ 136] [उत्तराध्ययनसूत्र (1) मिथिलानगरी में सर्वत्र कोलाहल हो रहा है। आप दयालु हैं, इसे शान्त करके फिर दीक्षा लें। (2) आपका अन्तःपुर, महल आदि जल रहे हैं, इनकी ओर उपेक्षा करके दीक्षा लेना अनुचित है। (3) पहले आप कोट, किले, खाई, अट्टालिका, शस्त्रास्त्र आदि बना कर नगर को सुरक्षित करके फिर दीक्षा लें। (4) अपने और वंशजों के आश्रय के लिए पहले प्रासादादि बनवा कर फिर दीक्षा लें / (5) तस्कर आदि प्रजापीड़कों का निग्रह करके, नगर में शान्ति स्थापित करके फिर दीक्षा लेना हितावह है। (6) उद्धत शासकों को पराजित एवं वशीभूत करके फिर दीक्षा ग्रहण करें। (7) यज्ञ, विप्रभोज, दान एवं भोग, इन प्राणिप्रीतिकारक कार्यों को करके फिर दीक्षा लेना चाहिए। (8) घोराश्रम (गृहस्थाश्रम) को छोड़ कर संन्यास ग्रहण करना उचित नहीं है / यहीं रह कर पौषधव्रतादि का पालन करो। (9) चाँदी, सोना, मणि, मुक्ता, कांस्य. दूष्य-वस्त्र, वाहन, कोश आदि में वृद्धि करके निराकांक्ष होकर तत्पश्चात् प्रवजित होना। (10) प्रत्यक्ष प्राप्त भोगों को छोड़ कर अप्राप्त भोगों की इच्छा की पूर्ति के लिए प्रवज्याग्रहण करना अनुचित है। * राजर्षि नमि के सभी उत्तर आध्यात्मिक स्तर के एवं श्रमणसंस्कृति-अनुलक्षी हैं। सारे विश्व को अपना कुटम्बी-अात्मसम समझने वाले नमि राजर्षि ने प्रथम प्रश्न का मार्मिक उत्तर वृक्षाश्रयी पक्षियों के रूपक से दिया है। ये सब अपने संकुचित स्वार्थवश आक्रन्दन कर रहे हैं / मैं तो विश्व के सभी प्राणियों के आक्रन्द को मिटाने के लिए दीक्षित हो रहा हूँ। दूसरे प्रश्न का उत्तर उन्होंने प्रात्मैकत्वभाव की दृष्टि से दिया है कि मिथिला या कोई भी वस्तु, शरीर आदि भी जलता हो तो इसमें मेरा कुछ भी नहीं जलता। इसी प्रकार उन्होंने कहाराज्यरक्षा, राज्य विस्तार, उद्धत नपों, चोर आदि प्रजापीड़कों के दमन की अपेक्षा अन्तःशत्रुओं से युद्ध करके विजेता बने हुए मुनि द्वारा अन्तर्राज्य की रक्षा करना सर्वोत्तम है, मुक्तिप्रदायक है / अशाश्वत घर बनाने की अपेक्षा शाश्वत गृह बनाना ही महत्त्वपूर्ण है / आत्मगुणों में बाधक शत्रुओं से सुरक्षा के लिए प्रात्मदमन करके आत्मविजयी बनाना ही आत्मार्थी के लिए श्रेयस्कर हैं / सावध यज्ञ और दान, भोग आदि को अपेक्षा सर्वविरति संयम श्रेष्ठ है ; गृहस्थाश्रम में देशविरति या नीतिन्याय-पालक रह कर साधना करने की अपेक्षा संन्यास आश्रम में रह कर सर्वविरति संयम, समत्व एवं रत्नत्रय की साधना करना श्रेष्ठ है। क्योंकि वही सु-याख्यात धर्म है / स्वर्णादि का भण्डार बढ़ा कर आकांक्षापूर्ति की आशा रखना व्यर्थ है, इच्छाएँ अनन्त हैं, उनकी पूर्ति होना असम्भव है, अतः निराकांक्ष, निस्पृह बनना ही श्रेष्ठ है। कामभोग प्राप्त हों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org