________________ अमं अज्झयणं : अष्टम अध्ययन काबिलीयं : कापिलीय दुःखबहुल संसार में दुर्गतिनिवारक अनुष्ठान को जिज्ञासा 1. अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए। कि नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाऽहं दोग्गई न गच्छेज्जा। [1] 'अध्र व, अशाश्वत और दुःखप्रचुर (दुःखों से परिपूर्ण) संसार में वह कौन-सा कर्म (-अनुष्ठान) है, जिसके कारण मैं (नरकादि) दुर्गति में न जाऊँ ?' विवेचन-धवे असासयंमि दक्खपउराए: अर्थ-ध्र व का अर्थ है-एक स्थान में प्रतिबद्धअचल, जो ध्र व नहीं है, अर्थात---जिसमें ऊँच-नीच स्थानों (गतियों एवं योनियों) में जीव भ्रमण करता है, वह अध्रव है तथा अशाश्वत—जिसमें कोई भी वस्तु शाश्वत-नित्य नहीं है, अर्थात् अविनाशी नहीं है, वह अशाश्वत है। दुःखप्रचुर–जिसमें शारीरिक, मानसिक दुःख अथवा आधि-व्याधि-उपाधिरूप दु:खों की प्रचुरता- अधिकता है / ये तीनों संसार के विशेषण हैं / (2) अथवा ये दोनों (अध्रव और प्रशाश्वत) शब्द एकार्थक हैं / किन्तु इनमें पुनरुक्ति दोष नहीं है, क्योंकि उपदेश में या किसी अर्थ को विशेष रूप से कहने में पुनरुक्ति दोष नहीं होता।' कपिलमुनि द्वारा बलभद्रादि पांच सौ चोरों को अनासक्ति का उपदेश 2. विजहित्त पुन्वसंजोगं न सिणेहं कहिचि कुब्वेज्जा। असिणेह सिणेहकरेहि दोसपओसेहि मुच्चए भिक्खू // [2] पूर्व (आसक्तिमूलक)-संयोग (सम्बन्ध) को सर्वथा त्याग कर फिर किसी पर भी स्नेह (आसक्ति) न करे। स्नेह (राग या मोह) करने वालों के साथ भी स्नेह न करने वाला भिक्षु दोषों (इहलोक में मानसिक संतापादि) और प्रदोषों (परलोक में नरकादि दुर्गतियों) से मुक्त हो जाता है। 3. तो नाण-दसणसमग्गो हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं / तेसि विमोक्खणट्ठाए भासई मुणिवरो विगयमोहो / [3] केवलज्ञान और केवलदर्शन से सम्पन्न तथा मोहरहित कपिल मुनिवर ने (सर्वजीवों के तथा) उन (पांच सौ चोरों) के हित और कल्याण के लिए एवं विमोक्षण (अष्टविध कर्मों से मुक्त होने के लिए कहा 4. सव्वं गन्थ कलहं च विप्पजहे तहाविहं भिक्खू / ___ सन्वेसु कामजाएसु पासमाणो न लिप्पई ताई // [4] (कर्मबन्धन के हेतुरूप) सभी ग्रन्थों (बाह्य-प्राभ्यन्तर ग्रन्थों-परिग्रहों) तथा कलह का 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 289 (ख) उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. कोष, भा. 3, पृ. 387 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org