________________ 124] [उत्तराध्ययनसूत्र अनेक विद्याओं में पारंगत थे, राजा भी उनसे प्रभावित था। उनके निधन के बाद तेरे अविद्वान होने के कारण वह स्थान दूसरे को दे दिया है।' कपिल ने कहा- 'मां! मैं भी विद्या पढ़ गा।' यशा--बेटा ! यहाँ के कोई भी ब्राह्मण तुझे विद्या नहीं पढ़ायेंगे, क्योंकि सभी ईर्ष्यालु हैं / यदि तू विद्या पढ़ना चाहता है तो श्रावस्ती में तू अपने पिता के घनिष्ट मित्र इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास चला जा / वे तुझे पढ़ाएँगे।' कपिल मां का आशीर्वाद लेकर श्रावस्ती चल पड़ा / वहाँ पूछते-पूछते वह इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास पहुंचा / उन्होंने जब उसका परिचय एवं प्रागमन का प्रयोजन पूछा तो कपिल ने सारा वृत्तान्त सुनाया 1 इससे प्रभावित होकर इन्द्रदत्त ने उसके भोजन की व्यवस्था वहाँ के शालिभद्र वणिक् के यहाँ करा दी। विद्याध्ययन के लिए वह इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास रहता और भोजन के लिए प्रतिदिन शालिभद्र श्रेष्ठी के यहाँ जाता / श्रेष्ठी ने एक दासी नियुक्त कर दी, जो कपिल को भोजन कराती थी। धीरे-धीरे दोनों का परिचय बढ़ा और अन्त में, वह प्रेम के रूप में परिणत हो गया। एक दिन दासी ने कपिल से कहा--'तुम मेरे सर्वस्व हो। किन्तु तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है / मैं निर्वाह के लिए इस सेठ के यहाँ रह रही हूँ; अन्यथा, हम स्वतंत्रता से रहते / ' दिन बीते / एक बार श्रावस्ती में विशाल जनमहोत्सव होने वाला था। दासी की प्रबल इच्छा थी उसमें जाने की / परन्तु कपिल के पास महोत्सव-योग्य कुछ भी धन या साधन नहीं था। दासी ने उसे बताया कि अधीर मत बनो! इस नगरी का धनसेठ प्रातःकाल सर्वप्रथम बधाई देने वाले को दो माशा सोना देता है। कपिल सबसे पहले पहुंचने के इरादे से मध्यरात्रि में ही घर से चल पड़ा। नगररक्षकों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया और प्रसेनजित राजा के समक्ष उपस्थित किया / राजा ने उससे रात्रि में अकेले घूमने का कारण पूछा तो उसने स्पष्ट बता दिया। राजा ने कपिल की सरलता और स्पष्टवादिता पर प्रसन्न हो कर उसे मनचाहा मांगने के लिए कहा / कपिल विचार करने के लिए कुछ समय लेकर निकटवर्ती अशोकवनिका में चला गया। कपिल का चिन्तन-प्रवाह दो माशा सोने से क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते करोड़ों स्वर्णमुद्रामों तक पहुंच गया। फिर भी उसे सन्तोष नहीं था / वह कुछ निश्चित नहीं कर पा रहा था / अन्त में उसकी चिन्तनधारा ने नया मोड़ लिया। लोभ की पराकाष्ठा सन्तोष में परिणत हो गई। जातिस्मरणज्ञान पाकर वह स्वयंबुद्ध हो गया / मुख पर त्याग का तेज लिए वह राजा के पास पहुंचा और बोला-'राजन् ! अब आपसे कुछ भी लेने की आकांक्षा नहीं रही / जो पाना था, मैंने पा लिया; संतोष, त्याग और अनाकांक्षा ने मेरा मार्ग प्रशस्त कर दिया है। राजा के सान्निध्य से निर्ग्रन्थ होकर वह दूर वन में चला गया / साधना चलती रही / 6 मास तक वे मुनि छद्मस्थ अवस्था में रहे। कपिल मुनि का चोरों को दिया गया गेय उपदेश ही इस अध्ययन में संकलित है / 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org