________________ 88] [उत्तराध्ययनसूत्र 13. तत्थोववाइयं ठाणं जहा मेयमणुस्सुयं / आहाकम्मेहि गच्छन्तो सो पच्छा परितप्पई // [13] जैसा कि मैंने परम्परा से यह सुना है-उन नरकों में औपपातिक (उत्पन्न होने का) स्थान है, (जहाँ उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त के बाद ही महावेदना का उदय हो जाता है और वह निरन्तर रहता है / ) (यहाँ से आयुष्य क्षीण होने के पश्चात्) वह अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वहाँ जाता हुया पश्चात्ताप करता है / /14. जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं / विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गंमि सोयई // 15. एवं धम्मं विउक्कम्म अहम्म पडिवज्जिया / बाले मच्चु-मुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई / / [14-15] जैसे कोई गाड़ीवान सम महामार्ग को जानता हुअा भी उसे छोड़ कर विषम मार्ग (उत्पथ) में उतर जाता है, तो गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। वैसे ही धर्म का उल्लंघन करके जो अज्ञानी अधर्म को स्वीकार कर लेता है, वह मृत्यु के मुख में पड़ने पर उसी तरह शोक करता है, जैसे धुरी टूट जाने पर गाड़ीवान करता है। 16. तओ से मरणन्तमि बाले सन्तस्सई भया। __ अकाम-मरणं मरई धुत्ते व कलिना जिए / [16] फिर वह अज्ञानी जीव मृत्युरूप प्राणान्त के समय (नरकादि परलोक के) भय से संत्रस्त (उद्विग्न) होता है, और एक ही दाव में सर्वस्व हार जाने वाले धूर्त-जुगारी की तरह (शोक करता हुआ) अकाममरण से मरता है। विवेचन—कामगिद्ध-इच्छाकाम और मदनकाम, इन दोनों का अभिकांक्षी-पासक्त / ' 'काम-भोगेसु' शब्द और रूप, ये दोनों 'काम,' तथा गन्ध, रस और स्पर्श, 'भोग' कहलाते हैं / अथवा प्रकारान्तर से स्त्रीसंग को काम, और विलेपन-मर्दन आदि को भोग कहा गया है। 'एगे' पद का प्राशय---'कामभोगासक्त मानव अकेला-किसी मित्रादि सहायक से रहित-ही कूट-नरक में जाता है।' कूडाय गच्छइ-तीन अर्थ--(१) कूट-मांसादि की लोलुपतावश मृगादि को बन्धन में डालता है / (2) कूट में पड़े हुए मृग को शिकारी द्वारा यातना दी जाती है, उसी तरह कूट-नरक में पड़े जीव को भी परमाधार्मिक असुर यातना देते हैं-अतः कूट अर्थात् नरक के बन्धन में पड़ता है। (3) कूटमिथ्याभाषणादि में प्रवृत्त होता है।' 1. वृहद् वृत्ति, पत्र 242 2. वही, पत्र 242 में उद्ध त----"कामा दुविहा पणत्ता-सद्दा' स्वायय, भोगा तिविहा पण्णता तं.-गंधा रसा ___फासा य / " यहा—यो गृद्धः--कामभोगेषु कामेषु स्त्रीसंगेषु' भोगेसु धूपन-विलेपनादिषु / 3. “एकः सुहृदादिसहाय्यरहितः'-बृहद् वृत्ति, पत्र 243 4. 'कूटमिव कुटं प्रभूतप्राणिनां यातनाहेतुत्वान्नरक इत्यर्थः. अथवा कूट द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मृगादि बन्धनं, भावस्तु मिथ्याभाषणादि ।'-ब. व. पत्र. 243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org