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________________ 86] [उत्तराध्ययनसूत्र अर्थ यहाँ वस्तुतः मृत्यु की अभिलाषा (कामना) पूर्वक मरण नहीं है, क्योंकि साधक के लिए जीवन और मृत्यु दोनों की अभिलाषा निषिद्ध है / कहा भी है- यदि अपार संसार-सागर को पार करना चाहते हो तो न तो चिर काल तक जीने का विचार करो और न ही शीघ्र मृत्यु का / ' 'उक्कोसेण सई भवे'- इस गाथा में कहा गया है, कि 'पण्डितों (चारित्रवानों) का सकाममरण एक बार ही होता है। यह कथन केवलज्ञानी की उत्कृष्ट भूमिका की अपेक्षा से कहा गया है, क्योंकि अन्य चारित्रवान् साधकों का सकाममरण तो 7-8 बार हो सकता है। 2 / 'बाल' तथा 'पण्डित'--ये दोनों पारिभाषिक विशिष्टार्थसूचक शब्द हैं। यहाँ बाल का विशेष अर्थ है-व्रतनियमादिरहित और पण्डित का विशेषार्थ है-व्रत-नियम-संयम में रत व्यक्ति / ' अकाममरण : स्वरूप, अधिकारी, स्वभाव और दुष्परिणाम 4. तत्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं / काम-गिद्ध जहा बाले भिसं कराई कुव्वई॥ [4 भगवान महावीर ने पूर्वोक्त दो स्थानों में से प्रथम स्थान के विषय में यह कहा है कि काम-भोगों में प्रासक्त बालजीव अत्यन्त क्रूर कर्म करता है। 5. जे गिद्ध कामभोगेसु एगे कूडाय गच्छई। 'न मे दिठे परे लोए चक्खू-दिट्ठा इमा रई // ' [5] जो काम-भोगों में आसक्त होता है, वह कूट (मृगादि-बन्धन, नरक या मिथ्या भाषण) की ओर जाता है। (किसी के द्वारा इनके त्याग की प्रेरणा दिये जाने पर वह कहता है-) 'मैने परलोक तो देखा नहीं; और यह रति (स्पर्शनादि कामभोग सेवन जनित-प्रीति-अानन्द) तो चक्षुदष्ट (-प्रत्यक्ष आँखों के सामने) है।' 6. 'हत्थागया इमे कामा कालिया जे प्रणागया / ___ को जाणइ परे लोए अस्थि वा नत्थि वा पुणो / [6] ये (प्रत्यक्ष दृश्यमान) कामभोग (--सम्बन्धी सुख) तो (अभी) हस्तगत हैं, जो भविष्य (आगामी भव) में प्राप्त होने वाले (सुख) हैं वे तो कालिक (अनिश्चित काल के बाद मिलने वाले---- संदिग्ध) हैं। कौन जानता है--परलोक है भी या नहीं? 1. सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकाम, मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया तथात्वं चोत्सवभूतत्त्वात्तादृशा मरणस्य / तथा च वाचक:-- संचिततपोधनानां नित्यं व्रतनियम-संयमरतानाम् / उत्सवभूतं मन्ये, मरणमनपराधवृत्तीनाम् / / न तु परमार्थतः तेषां, सकामं (मरणं) सकामत्वं; मरणाभिलाषस्यापि निषिद्धत्वात् / ....बहद वत्ति पत्र 242 2. वही, पत्र 242 3. बृहवृत्ति, पत्र 242 ".."तन्मरणस्योत्कर्षेण सकामता सकृद् एकवारमेव भवेत्ः जघन्येन तु शेषचारित्रिणः सप्ताष्ट वा वारान् भवेदित्याकूतम् / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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