________________ तइअं अज्झयणं : चाउरंगिज्ज तृतीय अध्ययन : चतुरंगीयम् महादुर्लभ : चार परम अंग - 1. चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं // [1] इस संसार में जीवों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं--(१) मनुष्यत्व, (2) सद्धर्म का श्रवण, (3) श्रद्धा और (4) संयम में वीर्य (पराक्रम)। विवेचन-परमंगाणि अत्यन्त निकट उपकारी तथा मुक्ति के कारण होने से ये परम अंग हैं।' सुई सद्धा-श्रुति और श्रद्धा ये दोनों प्रसंगवश धर्मविषयक ही अभीष्ट हैं / विविध घाटियाँ पार करने के बाद : दुर्लभ मनुष्यत्वप्राप्ति 2. समावन्नाण संसारे नाणा-गोत्तासु जाइसु / कम्मा नाणा-विहा कट पुढो विस्संभिया पया // [2] नाना प्रकार के कर्मों का उपार्जन करके, विविध नाम-गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न होकर पृथक्-पृथक रूप से प्रत्येक संसारी जीव (प्रजा) समस्त विश्व में व्याप्त हो जाता है अर्थात् संसारी प्राणी समग्र विश्व में सर्वत्र जन्म लेते हैं। - 3. एगया देवलोएसु नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं आहाकम्मेहिं गच्छई / / 3] जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार कभी देवलोकों में, कभी नरकों में और कभी असुरनिकाय में जाता है-जन्म लेता है / 4. एगया खत्तिओ होई तओ चण्डाल-बोक्कसो। तओ कीड-पयंगो य तओ कुन्थु-पिवीलिया / [4] यह जीव कभी क्षत्रिय होता है, कभी चाण्डाल, कभी बोक्कस (-वर्णसंकर), होता है, उसके पश्चात् कभी कीट-पतंगा और कभी कुन्थु और कभी चींटी होता है। —बृहद्वत्ति, पत्र 156 1. परमाणि च तानि अत्यासन्नोपकारित्वेन अंगानि, मुक्तिकारणत्वेन परमंगानि / 2. वृहद्वत्ति, पत्र 156 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org