________________ अनुवादक की कलम से वैदिकपरम्परा में जो स्थान मीता का है, बौद्धपरम्परा में जो स्थान धम्मपद का है, इस्लाम में जो स्थान कुरान का है, पारसियों में जो स्थान अवेस्ता का है, ईसाइयों में जो स्थान बाईबिल का है, वही स्थान जैनपरम्परा में उत्तराध्ययन का है। उत्तराध्ययन भगवान महावीर की अनमोल वाणी का अनठा संग्रह है। यह जीवनसूत्र है। आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं नैतिक जीवन के विभिन्न दृष्टिकोणों का इसमें गहराई से चिन्तन है। एक प्रकार से इसमें जीवन का सर्वांगीण विश्लेषण है। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र पर नियुक्ति, भाष्य, चणि और अनेक प्राचार्यों की वत्तियां संस्कृतभाषा में लिखी गई हैं। गुजराती और हिन्दी भाषा में भी इस पर बृहत् टीकाएं लिखी गई हैं। समय-समय पर मूर्धन्य मनीषीगणों की कलमें इस पागम के पावन संस्पर्श को पाकर धन्य हुई हैं। यह एक ऐसा प्रागम है, जो गम्भीर अध्येताओं के लिए भी उपयोगी है। सामान्य साधकों के लिए भी साधना की इसमें पर्याप्त सामग्री है। उत्तराध्ययन के महत्त्व, उसको संरचना, विषय-वस्तु आदि सभी पहलुओं पर परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव साहित्यमनीषी श्री देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री ने अपनी विस्तृत प्रस्तावना में चिन्तन किया है। अतः मैं उस सम्बन्ध में पुनरावृत्ति न कर प्रबुद्ध पाठकों को उसे ही पढ़ने की प्रेरणा दूंगा। मुझे तो यहाँ संक्षेप में ही अपनी बात कहनी है। साधना-जीवन में प्रवेश करने के अनन्तर दशवकालिकसूत्र के पश्चात् उत्तराध्ययनसूत्र को परम श्रद्धय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. से मैंने पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते मेरा हृदय नत हो गया इस बहमूल्य प्रागमरत्न पर। मुझे लगा, यह पागम रंग-बिरंगे सुगन्धित फूलों के गुलदस्ते की तरह है, जिसका मधुर सौरभ पाठक को मुग्ध किये बिना नहीं रह सकता। उत्तराध्ययन का प्रारम्भ ही विनय से हुमा है। विनय प्रगति का मूलमंत्र है। साधक को मुरुजनों का अनुशासन किस प्रकार मान्य करना चाहिए, यह बात इसमें विस्तार से निरूपित है। साधक को किस प्रकार बोलना, बैठना, खड़े होना, अध्ययन करना आदि सामान्य समझी जाने वाली क्रियानों पर भी गहराई से चिन्तन कर कहा है-ये क्रियाएँ जीवन- निर्माण की नींव की ईंट के रूप में हैं। इन्हीं पर साधना का भव्य भवन प्राधत है। इन सामान्य बातों को बिना समझे, बिना अमल में लाए यदि कोई प्रगति करना चाहे तो वह कदापि सम्भव नहीं है। आज हम देख रहे हैं-परिवार, समाज और राष्ट्र में विग्रह, द्वन्द्व का दावानल सुलग रहा है। अनुशासनहीनता दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में यदि प्रस्तुत शास्त्र के प्रथम अध्ययन का भाव ही मानव के मन में घर कर जाये तो सुख-शांति की सूरीली स्वर-लहरियाँ झनझना सकती हैं। व्यक्ति जरा-सा कष्ट माने पर कतराता है। पर उसे पता नहीं कि जीवन-स्वर्ण कष्टों की अग्नि में तपकर ही निखरता है। बिना कष्ट के जीवन में निखार नहीं पाता, इसीलिए परीषह-जय के सम्बन्ध में चिन्तन कर यह बताया गया है कि परीषह से भयभीत न बनो। [15] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org