________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति] (31 विवेचन-पविभत्ति-प्रकर्षरूप से स्वरूप, विभाग एवं भावों की अपेक्षा से पृथक्ता का नाम प्रविभक्ति है / इसे वर्तमान भाषा में विभाग या भेद कहते हैं।' (1) क्षुषा परीषह 2. दिगिछा-परिगए देहे तवस्सी भिक्खु थामवं। ___ न छिन्दे, न छिन्दावए न पए, न पयावए / [2] शरीर में झुधा व्याप्त होने पर भी संयमबल से युक्त भिक्षु फल आदि का स्वयं छेदन न करे और न दूसरों से छेदन कराए, उन्हें न स्वयं पकाए और न दूसरों से पकवाए। 3. काली-पच्वंग-संकासे किसे धमणि-संतए / ___ मायन्ने असण-पाणस्स अदीण-मणसो चरे॥ [3] (दीर्घकालिक क्षुधा के कारण) शरीर के अंग काकजंधा (कालीपर्व) नामक तृण जैसे सूख कर पतले हो जाएँ, शरीर कृश हो जाए, धमनियों का जालमात्र रह जाए, तो भी प्रशनपानरूप पाहार की मात्रा (मर्यादा) को जानने वाला भिक्षु अदीनमना (–अनाकुल-चित्त) हो कर (संयममार्ग में) विचरण करे। विवेचन-क्षुधापरीषह : स्वरूप और प्रथम स्थान का कारण—'क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना' (भूख के समान कोई भी शारीरिक वेदना नहीं है) कह कर चूणिकार ने क्षुधा-परीषह को परीषहों में सर्वप्रथम स्थान देने का कारण बताया है। क्षधा की चाहे जैसी वेदना उठने पर संयमभीरु साधु के द्वारा आहार पकाने-पकवाने, फलादि का छेदन करने-कराने, खरीदने-खरीदाने की वाञ्छा से निवत्त होकर तथा अपनी स्वीकृत मर्यादा के विपरीत अनेषणीय-अकल्पनीय आहार न लेकर क्षुधा को समभावपूर्वक सहना क्षुधापरीषह है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार क्षुधावेदना की उदीरणा होने पर निरबद्य पाहारगवेषी जो भिक्षु निर्दोष भिक्षा न मिलने पर या अल्प मात्रा में मिलने पर क्षुधावेदना को सहता है, किन्तु अकाल या प्रदेश में भिक्षा नहीं लेता, लाभ की अपेक्षा अलाभ को अधिक गुणकारी मानता है, वह क्षधापरीषह-विजयी है। क्षधापरीषह-विजयी नवकोटिविशुद्ध भिक्षामर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, यह शान्त्याचार्य का अभिमत है / काली-पव्वंग-संकासे—कालीपर्व का अर्थ चूर्णिकार, बृहद्वत्तिकार 'काकजंघा' नामक तृणविशेष करते हैं / मुनि नथमलजी के मतानुसार हिन्दी में इसे 'घुघची या गुंजा का वृक्ष' कहा जाता है। परन्तु यह अर्थ समीचीन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि गुजा का वृक्ष नहीं होता, वेल होती है / डॉ. हरमन जेकोबी, डॉ. सांडेसरा आदि ने 'काकजंघा' का अर्थ 'कौए की जांध' किया है। बृहद्वत्ति के अनुसार काकजंघा नामक तृणवृक्ष के पर्व स्थूल और उसके मध्यदेश कृश होते हैं, उसी प्रकार जिम भिक्षु के घुटने, कोहनी आदि स्थूल और जंघा, ऊरु (साथल), बाहु आदि कृश हो गए हों, उसे कालीपर्वसकाशांग (कालीपव्वंगसंकासे) कहा जाता है / 1. बृहद्वत्ति, पत्र 83 2. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 52 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 84 (म) प्रवचनसारोद्धार, द्वार 8 (ध) तत्त्वार्थ. सर्वार्थसिद्धि अ. 9 / 9 / 42016 3. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 53 (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 84 (ग) The Sacred Books of the East-Vol XLV, P. 10, (घ) उत्तराध्ययन, पृ. 17 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org