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________________ 30] [उत्तराध्ययनसूत्र होकर, (4) परीषहों के सामर्थ्य का सामना करके, उन्हें पराभूत करके या दबा कर / इसका फलितार्थ यह हुआ कि साधक को इन उपायों से परीषहों पर विजय पाना चाहिए।' पुट्ठो नो विहन्नेज्जा का भावार्थ यह है कि परीषहों के द्वारा आक्रान्त होने पर साधक पूर्वोक्त उपायों को अजमाए तो विविध प्रकार से संयम तथा शरीरोपघातपूर्वक विनाश को प्राप्त नहीं होता। भिक्खायरियाए परिव्ययंतो-यहाँ शंका होती है कि परीषहों के नामों को देखते हुए 22 ही परीषह विभिन्न परिस्थितियों में उत्पन्न होते हैं, फिर केवल भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन के समय ही इनकी उत्पत्ति का उल्लेख क्यों किया गया? इसका समाधान बृहद्वृत्ति में यों किया गया है कि भिक्षाटन के समय ही अधिकांश परीषह उत्पन्न होते हैं, जैसा कि कहा है---'भिक्खायरियाए बावीसं परीसहा उदोरिज्जति / ' प्रत्येक परीषह का स्वरूप प्रसंगवश शास्त्रकार स्वयं ही बताएंगे। ३–इमे खलु ते बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय, भिक्खायरियाए परिव्वयन्तो पुठ्ठो नो विहन्न ज्जा, तं जहा 1 दिगिछा-परीसहे 2 पिवासा-परीसहे 3 सोय-परीसहे 4 उसिण-परोसहे 5 दंस-मसयपरीसहे 6 अचेल-परीसहे 7 अरइ-परीसहे 8 इत्थी-परीसहे 9 चरिया-परीसहे 10 निसोहियापरीसहे 11 सेज्जा-परीसहे 12 अक्कोस-परीसहे 13 वह-परीसहे 14 जायणा-परीसहे 15 अलाभ-परीसहे 16 रोग-परीसहे 17 तण-फास-परीसहे 18 जल्ल-परीसहे 19 सक्कारपुरक्कार-परीसहे 20 पन्ना-परोसहे 21 अन्नाण-परीसहे 22 सण-परीसहे। [३-उ.] वे बाईस परीषह ये हैं, जो काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित हैं ; जिन्हें सुन कर, जान कर, अभ्यास के द्वारा परिचित कर, पराजित कर, भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ भिक्षु उनसे स्पृष्ट-पाक्रान्त होने पर विचलित नहीं होता / यथा-१-क्षुधापरीषह, २-पिपासापरीषह, ३-शीतपरीषह, ४-उष्णपरीषह, ५-दंश-मशक-परीषह, ६-अचेल-परीषह, ७-अरति-परीषह, ८-स्त्री-परीषह, ६-चर्या-परीषह, १०-निषद्या-परीषह, ११-शय्या-परीषह, १२-आक्रोश-परीषह, १३-वध-परीषह, १४-याचना-परीषह, १५-अलाभ-परीषह, १६-रोग-परीषह. १७-तृणस्पर्श-परीषह, १८-जल्ल-परीषह, १६-सत्कार-पुरस्कार-परीषह, २०-प्रज्ञा-परीषह, २१अज्ञान-परीषह और २२-दर्शन-परीषह / भगवत्-प्ररूपित परीषह-विभाग-कथन की प्रतिज्ञा 1. परीसहाणं पविभत्ती कासवेणं पवेइया / __ तं भे उदाहरिस्सामि आणुपुत्विं सुणेह मे // [1] 'काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर ने परीषहों के जो जो विभाग (पृथक्-पृथक् स्वरूप और भाव की अपेक्षा से) बताए हैं, उन्हें मैं तुम्हें कहूँगा; मुझ से तुम अनुक्रम से सुनो।' 1. उत्तराध्ययनसूत्र मूल, बृहद्वृत्ति, पत्र 82: 'जे भिक्खू सुच्चा बच्चा जिच्चा अभिभूय"..."पुट्ठो नो विहान ज्जा।' 2. वृहद्वृत्ति, पत्र 82 3. वही, पत्र 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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