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________________ प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र] [21 [35.) संयमी साधु प्राणी और बीजों से रहित, ऊपर से ढंके हुए और दीवार आदि से संवृत मकान (उपाश्रय) में अपने सहधर्मी साधुओं के साथ भूमि पर न गिराता हुआ यत्नपूर्वक पाहार करे। 36. सुकडे त्ति सुपक्के त्ति सुच्छिन्ने सुहडे मडे / सुणिट्ठिए सुलझे ति सावज्जं वज्जए मुणी // [36.] (ग्राहार करते समय) मुनि, भोज्य पदार्थों के सम्बन्ध में-'बहुत अच्छा किया है, बहुत अच्छा पकाया है, (घेवर आदि) खूब अच्छा छेदा (काटा) है, अच्छा हुआ है, जो इस करेले अादि का कड़वापन मिट अपहृत हो) गया है, अच्छी तरह निर्जीव (प्रासुक) हो गया है अथवा चूरमे आदि में घी अच्छा भरा (रम गया या खपा) है, 'यह बहुत ही सुन्दर है-इस प्रकार के सावध (पापयुक्त) वचनों का प्रयोग न करे। विवेचन-पडिरूवेण के पांच अर्थ---चूर्णिसम्मत अर्थ (1) प्रतिरूप-शोभन रूपवाला, (2) उत्कृष्ट वेश वाला अर्थात्--रजोहरण, गोच्छग और पात्रधारक, और जिनप्रतिरूपक यानी तीर्थकर के समान पाणिपात्र हो कर भोजन करने वाला। प्रकरणसंगत अर्थ-स्थविरकल्पी या कल्पी, जिस वेश में हो, उसी रूप में। प्रतिरूप का अर्थ प्रतिबिम्ब भी है, अतः अर्थ हया--- तीर्थकर या चिरन्तन मुनियों के समान वेश वाला।' भिक्षागत-दोषों के त्याग का संकेत-'नाइउच्चे व नीए वा' ऊर्ध्वमालापहृत और अधोमालापहृत दोषों की ओर, 'नासन्न नाइदूरओ' ये दो पद गोचरी के लिए गये हुए मुनि के द्वारा गहस्थगृहप्रवेश की मर्यादा की ओर संकेत करते हैं तथा फासुयं, परकडं, पिंडं आदि भिक्षादोषों के त्याग का संकेत दशवैकालिक में मिलता है। अप्पपाणे अप्पबीयंमि-..इन दोनों में अल्प शब्द अभाववाचक है / इन दोनों पदों का क्रमशः अर्थ होता है प्राणी रहित या द्वीन्द्रियादिजीव-रहित स्थान में, बीज (एकेन्द्रिय) से रहित स्थान में / उपलक्षण से इन दोनों पदों का अर्थ होता है -समस्त त्रस-स्थावर जन्तुओं से रहित स्थान में / पडिच्छन्न मि संवडे-इन दोनों का अर्थ क्रमश: ऊपर से ढंके हुए स्थान—उपाश्रय में तथा पार्श्व में दीवार आदि से संवत स्थान---उपाश्रय में होता है। इन दोनों पदों के विध यह है कि साधु खुले में भोजन न करे, क्योंकि वहाँ संपातिम (ऊपर से गिरने वाले) सूक्ष्म जीवों का उपद्रव संभव है / अत: ऐसे स्थान में आहार करे जो ऊपर से छाया हुआ हो तथा बगल में भी भीत, टाटी या पर्दा आदि से ढंका हुआ हो / 'संवुडे' शब्द स्थान के विशेषण के अतिरिक्त 1. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 39. (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 59 (ग) मुखबोधा, पत्र 11 2. (क) दशवकालिक 5 / 1 / 67-68-69 (ख) वही, अ. 5 / 1 / 24 (ग) वही, 8 / 23, 8 / 51 3. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. 40 (ब) बृहद्वृत्ति , पत्र 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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