________________ प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र] खंति-सोहिकरं-दो अर्थ-(१) क्षमा और शुद्धि-प्राशयविशुद्धता करने वाला, (2) क्षान्ति की शुद्धि निर्मलता करने वाला / गुरु का अनुशासन क्षान्ति का हेतु है और मार्दवादि शुद्धि कारक हैं।' पयं—पद का अर्थ हैं-स्थान, अर्थात्-ज्ञानादिगुण प्राप्ति का स्थान / विनीत को गुरुसमक्ष बैठने की विधि 30. आसणे उचिट्ठज्जा अणुच्चे अकुए थिरे / ___ अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जऽप्पकुक्कुए / [30.] (शिष्य) ऐसे आसन पर बैठे, जो गुरु के आसन से ऊँचा नहीं (नीचा) हो, जिससे कोई आवाज न निकलती हो और स्थिर हो (जिसके पाये जमीन पर टिके हुए हों)। ऐसे प्रासन से प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे तथा (किसी गाढ़) कारण के विना न उठे। बैठे तब स्थिर एवं शान्त होकर बेठे हाथ पैर आदि से चपलता न करे / विवेचन–'अणुच्चे' शब्द की व्याख्या-जो आसन गुरु के पासन से द्रव्यतः नीचा हो और भावतः अल्पमूल्य वाला आदि हो / 'अकुए' शब्द के दो रूप, दो अर्थ (1) अकुजः --जो आसन ,पाट, चौकी आदि) अावाज न करता हो, (2) अकुचः—जो अकम्पमान हो, लचीला न हो। 'अल्पोत्थायी' के दो अर्थ (1) अल्पोत्थायी प्रयोजन होने पर कम ही उठे, अथवा (2) प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे।" निरुत्थायी -निमित्त या प्रयोजन (कारण) के विना न उठे। 'अल्पोकुक्कुए'–के दो अर्थ-चूर्णि में 'अल्प' का 'निषेध' अर्थ है, जबकि बृहद्वत्ति में 'थोड़ा' और 'निषेध' दोनों अर्थ किये हैं / इन अर्थों की दृष्टि से 'अप्पकुक्कुए' (1) हाथ-पैर आदि से असत् चेष्टा (कौत्कुच्य) न करे, अथवा (2) हाथ-पैर आदि से थोड़ा स्पन्दन (हलन-चलन) करे, ये दो अर्थ हैं। यथाकालचर्या का निर्देश-- 31. कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे / अकालं च विवज्जित्ता काले कालं समायरे / 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 58 2. वही, पत्र 58 3. वही, पत्र 58-59 4. वही, पत्र 58-59 5. वही, पत्र 58-59 6. वही, पत्र 58-59 7. (क) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 38 (ख) सुखबोधा, पत्र 11, (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र 58-59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org