SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 18] [उत्तराध्ययनसूत्र अगारेसु के दो अर्थ-(१) शून्यागारों में, (2) घरों में / ' संधीसु के दो अर्थ-(१) घरों के बीच की सन्धियों में, (2) दो दीवारों के बीच के प्रच्छन्न स्थानों में। विनीत के लिए अनुशासन-स्वीकार का विधान 27. जं मे बुद्धाणुसासन्ति सोएण फरसेण वा। 'मम लाभो' त्ति पेहाए पयओ तं पडिस्सुणे // [27.] 'सौम्य (शीतल-कोमल) अथवा कठोर शब्द से प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ प्राचार्य) मुझ पर जो अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है, ऐसा विचार कर प्रयत्नपूर्वक उस अनुशासन (शिक्षावचन) को स्वीकार करे। 28. अणुसासणमोवायं दुक्कउस्स य चोयणं / हियं तं मन्नए पण्णो वेसं होइ असाहुणो॥ [28.] प्राचार्य के द्वारा किया जाने वाला प्रसंगोचित मृदु या कठोर अनुशासन (प्रौपाय), दुष्कृत का निवारक होता है। प्राज्ञ (बुद्धिमान्) शिष्य उसे हितकारक मानता है, वही (अनुशासन) असाधु-अविनीत मूढ़ के लिए द्वेष का कारण बन जाता है। 29. हियं विगय-भया बुद्धा फरसं पि अणुसासणं / वेसं तं होइ मूढाणं खन्ति-सोहिकरं पयं // [26.| भय से मुक्त मेधावी (प्रबुद्ध) शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं, किन्तु वही क्षमा और चित्त शुद्धि करने वाला (गुण-वृद्धि का आधारभूत) अनुशासन-पद मूढ शिष्यों के लिए द्वेष का कारण हो जाता है। ___ विवेचन–अणुसासंति-अनुशासन शब्द यहाँ शिक्षा, उपदेश, नियंत्रण आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। -- 'सीएण फरसेण वा'-शीत शब्द के दो अर्थ-(१) सौम्य शब्द और (2) समाधानकारी शब्द / परुष का अर्थ है-कर्कश-कठोर शब्द / / ओवायं के दो रूपान्तर-प्रौपायम और प्रौपपातम / प्रौपायम का अर्थ है-कोमल और कठोर वचनादि रूप उपाय से होने वाला / उपपात का अर्थ है–समीप रहना, गुरु की सेवाशुश्रूषा में रहना, उपपात से होने वाला कार्य प्रौपपात है।" 1. (क) 'अगारं नाम सुण्णागारं'–उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 37 (ख) 'प्रगारेषु-गृहेषु / ' –बृहद्वृत्ति, पत्र 70 2. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 57 (ख) उत्तराध्ययनणि, पृ. 37 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 57 4. वही, पत्र 57 5. वही, पत्र 57-58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy