________________ 10] [उत्तराध्ययनसूत्र 10. मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे / कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाएज्ज एगगो॥ [10] शिष्य (क्रोधावेश में आ कर कोई) चाण्डालिक कर्म (अपकर्म) न करे और न ही बहुत बोले (~-बकवास करे) / अध्ययन (स्वाध्याय-) काल में अध्ययन करके तत्पश्चात् एकाकी ध्यान करे। 11. प्राहच्च चण्डालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइ वि / कडं 'कडे' ति भासेज्जा, अकडं 'नो कडे' त्ति य / / [11] (मावेशवश) कोई चाण्डालिक कर्म (कुकृत्य) कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए / (यदि कोई कुकृत्य) किया हो तो 'किया' और न किया हो तो 'नहीं किया' कहे / विवेचन–अनुशासन के दश सूत्र--(१) गुरुजनों के समीप सदा प्रशान्त रहे, (2) वाचाल न बने, (3) निरर्थक बातें छोड़ कर सार्थक पद सीखे, (4) अनुशासित होने पर क्रोध न करे, (5) क्षमा धारण करे, (6) क्षुद्रजनों के साथ सम्पर्क, हास्य एवं क्रीड़ा न करे, (7) चाण्डालिक कर्म न करे, (8) अध्ययनकाल में अध्ययन करके फिर ध्यान करे, (6) अधिक न बोले, (10) कुकृत्य किया हो तो छिपाए नहीं, जैसा हो, वैसा गुरु से कहे।' निसंते-निशान्त के तीन अर्थ-- (1-2) अत्यन्त शान्त रहे अर्थात्--अन्तस् में क्रोध न हो, बाह्य प्राकृति प्रशान्त हो, (3) जिसकी चेष्टाएँ अत्यन्त शान्त हो / 2 अदजुत्ताणि-अर्थयुक्त के तीन अर्थ--(१) हेयोपादेयाभिधायक अर्थयुक्त-आगम (उपदेशात्मक सूत्र) वचन, (2) मुमुक्षुओं के लिए अर्थ-मोक्ष से संगत उपाय और (3) साधुजनोचित अर्थयुक्त / निरद्वाणि-निरर्थक के तीन अर्थ-(१) डित्थ, डवित्थ प्रादि अर्थशन्य, निरुक्तशून्य पद, (2) कामशास्त्र, काममनोविज्ञान या स्त्रीविकथादि अनर्थकर वचन, (3) लोकोत्तर अर्थ-प्रयोजन या उद्देश्य से रहित शास्त्र / 4 कोडं--क्रीडा के तीन अर्थ-(१) खेलकूद, (2) मनोविनोद या किलोल आदि, (3) अंत्याक्षरी, प्रहेलिका हस्तलाधव आदि से जनित कौतुक / ' चंडालियं-के तीन अर्थ-(१) चण्ड(क्रोध भयादि) के वशीभूत होकर अलीक-असत्यभाषण, (2) चाण्डाल जाति में होने वाले क्रूरकर्म, (3) 'मा अचंडालिय' पद मान कर हे अचण्ड–सौम्य ! अलीक—(गुरुवचन या आगमवचन का विपरीत अर्थ-कथन करके) असत्याचरण मत करो। 1. उत्तराध्ययनसूत्र, मूल अ. 1, मा. 8 से 11 तक 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 46-47 (ख) सुखबोधा, पत्र 3 (ग) उत्तराध्ययनचूणि; पृ. 28 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 46-47 (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 28 4. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 47 (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 29 (ग) सुखवोधा, पत्र 3 5-6. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 47 (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 29 . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org