________________ प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र] विनय का उपदेश और परिणाम--- 6. सुणियाऽभावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य / विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो // [6] अपना आत्महित चाहने वाला साधु, (सड़े कान वाली) कुतिया और(विष्ठाभोजी) सूअर के समान, दुःशील से होने वाले अभाव (-अशोभन =हीनस्थिति) को सुन (समझ) कर अपने प्रापको विनय (धर्म) में स्थापित करे / 7. तम्हा विणयमेसेज्जा, सीलं पडिलभे जओ। बुद्ध-पुत्त नियागट्ठी, न निक्कसिज्जइ कण्हुई // [7] इसलिए विनय का आचरण करना चाहिए, जिससे कि शील की प्राप्ति हो / जो बुद्धपुत्र (प्रबुद्ध गुरु का पुत्रसम प्रिय), मोक्षार्थी शिष्य है, वह कहीं से (गच्छ, गण आदि से) नहीं निकाला जाता। विवेचन - बुद्धपुत्त दो रूपान्तर--बुद्धपुत्र-प्राचार्यादि का पुत्रवत् प्रीतिपात्र शिष्य, बुद्धवुत्त-- -अवगततत्त्व तीर्थकरादि द्वारा उक्त ज्ञानादि या द्वादशांगरूप प्रागम।' नियागट्टी दो रूप --नियागार्थी मोक्षार्थी और निजकार्थी प्रात्मार्थी (निज प्रात्मा के सिवाय शेष सब पर हैं, इस दृष्टि से आत्मरमणार्थी), अथवा ज्ञानादित्रय का अर्थी-अभिलाषी, अथवा आगमज्ञान का अभिलाषी। अनुशासनरूप विनय की दशसूत्री 8. निसन्ते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अन्तिए सया। अट्ठजुत्ताणि सिक्खेज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए / [8] (शिष्य) बुद्ध (-गुरु) जनों के निकट सदा प्रशान्त रहे, वाचाल न बने, (उनसे) अर्थयुक्त (पदों को) सीखे और निरर्थक बातों को छोड़ दे। 9. अणुसासिओ न कुप्पेज्जा, खंति सेवेज्ज पण्डिए / खुड्डेहि सह संसरिंग, हासं कोडं च वज्जए / [6] (गुरु के द्वारा) अनुशासित होने पर पण्डित (–बुद्धिमान् शिष्य) क्रोध न करे, क्षमा का सेवन करे [--शान्त रहे], क्षुद्र [-बाल या शीलहीन] व्यक्तियों के साथ संसर्ग, हास्य और क्रीड़ा से दूर रहे। 1. (क) सुखबोधा, पत्र 3; बृहद्वृत्ति, पत्र 46 (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 28, बृहद्वृत्ति, पत्र 46 2. (क) सुखबोधा, पत्र 3; बृहद्वृत्ति, पत्र 46 (ख) उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 35, 28, बृहद्वृत्ति, पत्र 46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org