________________ [उत्तराध्ययनसूत्र 2 के विविध व्यवहार एवं आचरण पर से विनय के निम्नोक्त अर्थ फलित होते हैं-(१) गुरुआज्ञा-पालन, (2) गुरु की सेवा-शुश्रूषा, (3) इंगिताकारसंप्रज्ञता, (4) सुशील (सदाचार)सम्पन्नता, (5) अनुशासन-शीलता, (6) मानसिक-वाचिक-कायिक नम्रता, (7) प्रात्मदमन, (8) अनाशातना, (6) गुरु के प्रति अप्रतिकूलता, (10) गुरुजनों की कठोर शिक्षा का सहर्ष स्वीकार, (11) यथाकालचर्या, आहारग्रहण-सेवनविवेक, भाषा विवेक आदि साधुसमाचारी का पालन।' * विनय का अर्थ यहाँ दासता, दीनता या गुरु की गुलामी नहीं है, न स्वार्थसिद्धि के लिए किया गया कोई दुष्ट उपाय है और न कोई औपचारिकता है। सामाजिक व्यवस्थामात्र भी नहीं है / अपितु गुणी जनों और गुरुजनों के महान् मोक्षसाधक पवित्र गुणों के प्रति सहज प्रमोदभाव है, जो गुरु और शिष्य के साथ तादात्म्य एवं आत्मीयता का काम करता है। उसी के माध्यम से गुरु प्रसन्नतापूर्वक अपनी श्रुतसम्पदा एवं प्राचारसम्पदा से शिष्य को लाभान्वित करते हैं। * बृहद्वत्ति के अनुसार विनय के मुख्य दो रूप फलित होते हैं-लौकिकविनय एवं लोकोत्तरविनय / लौकिकविनय में अर्थविनय, कामविनय, भयविनय और लोकोपचारविनय आते हैं और लोकोत्तरविनय, जो यहाँ विवक्षित है, और जिसे यहाँ मोक्षविनय कहा गया है, उसके ५भेद किये गए हैं-दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपोविनय और उपचारविनय / औपपातिकसूत्र में इसी के 7 प्रकार बताए हैं--(१) ज्ञानविनय, (2) दर्शनविनय, (3) चारित्रविनय, (4) मनविनय, (5) वचनविनय, (6) कायविनय और (7) लोकोपचारविनय / * विनय का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किया गया है-अष्टविध कर्मों का जिससे विनयन-उन्मूलन किया जाए / इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन में मोक्षविनय ही अभीष्ट है। * प्रस्तुत अध्ययन की दूसरी, अठारहवीं से 22 वीं तक और तीसवीं गाथा में लोकोपचारविनय की दष्टि से विनीत के व्यवहार का वर्णन किया है। उसके 7 विभाग हैं-(२) अभ्यास वृत्तिता, (2) परछन्दानुवृत्तिता, (3) कार्यहेतु-अनुलोमता, (4) कृतप्रतिक्रिया, (5) आतगवेषणा, (6) देशकालज्ञता और (6) सर्वार्थ-अप्रतिलोमता / इसी प्रकार 9, 15, 16, 38, 36, 40 वी गाथा मनोविनय के सन्दर्भ में, 10, 11, 12, 14, 24, 25, 36, 41 वीं गाथा वचनविनय के सन्दर्भ में, 17 से 22 एवं 30, 40, 43, 44 वीं गाथा कायविनय के सन्दर्भ में, 8 वीं एवं 23 वी गाथा ज्ञानविनय के सन्दर्भ में, 17 से 22 तक दर्शनविनय 1. उत्तराध्ययन अ. 1, गाथा 2, 7, 8 से 14 तक, 15-16, 17 से 22 तक, 24-25, 27 से 30 तक, 31 से 44 तक। 2. उत्तरा. गा. 46, 3. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 16 (ख) प्रौपपातिकसूत्र 20, (ग) विनयति-नाशयति सकलक्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म स विनयः। -आवश्यक म. प्र. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org