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________________ प्रथम अध्ययन : द्रमपुष्पिका] [17 ऋद्धि, सिद्धि या लब्धि की प्राप्ति या अन्य किसी सांसारिक उपलब्धि के लिए धर्माचरण न करे, केवल निर्जरा (आत्मशुद्धि) या अर्हन्तों द्वारा उपदिष्ट मोक्ष के हेतु से ही धर्माचरण करे; ऐसी तीर्थक र प्रभु की आज्ञा है।४४ श्रमणधर्म भिक्षाचरी और मधुकर-वृत्ति 2. जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियई रसं / न य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं // 3. एमए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुष्फेसु, दाण-भत्तेसणे रया / / 4. वयं च वित्ति लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ / अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा // [2] जिस प्रकार भ्रमर, वृक्षों के पुष्पों में से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, तथा (किसी भी) पुष्प को पीड़ा नहीं पहुँचाता (म्लान नहीं करता); और वह अपने आपको (भी) तृप्त कर लेता है / / 2 // [3] उसी प्रकार लोक में जो (बाह्य-पाभ्यन्तर-परिग्रह से या राग-द्वेष के ग्रन्थि-बन्धन से) मुक्त, श्रमण साधु हैं, वे दान-भक्त (दाता द्वारा दिये जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा (भिक्षा) में रत रहते हैं; जैसे भौंरे फूलों में / / 3 / / [4] हम इस ढंग से वृत्ति (=भिक्षा) प्राप्त करेंगे, (जिससे) किसी जीव का उपहनन (उपमर्दन) न हो, (क्योंकि) जिस प्रकार भ्रमर अनायास (अकस्मात्) प्राप्त, फूलों पर चले जाते हैं, (उसी प्रकार) श्रमण भी यथाकृत-गृहस्थों के द्वारा अपने लिए सहजभाव से बनाए हुए / आहार के लिए, उन घरों में भिक्षा के लिए जाते हैं / / 4 / / विवेचन-भ्रमरवृत्ति और साधु को भिक्षावृत्ति--प्रस्तुत तीन गाथाओं (2 से 4 तक) में भ्रमरवृत्ति से साधु की भिक्षावृत्ति की तुलना की गई है। अहिंसा, श्रमणधर्म और जीवननिर्वाह---प्रश्न होता है कि श्रमणधर्म या चारित्रधर्म का पालन या आचरण शरीर से होता है और शरीर के निर्वाह के लिए आहार की आवश्यकता रहती है, आहार पृथ्वीकायादि षड्जीवनिकाय के प्रारम्भ के विना निष्पन्न नहीं हो सकता / अगर साधु प्रारम्भ में पड़ता है तो श्रमणधर्म का पालन नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में साधु अपने हिसाधम पर कैसे स्थिर रह सकता है ? इस समस्या के समाधान के हेतु इन गाथाओं में भ्रमर का दृष्टान्त देकर साधुनों के लिए निर्दोष भिक्षावृत्ति द्वारा आहार ग्रहण करने और जीवन-निर्वाह करने की विधि बताई गई है। इस 44. दशवै. अ. 9, उ. 4, सू. 5-6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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