SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [दशवकालिकसूत्र अहिंसा से स्व-पर का हित है, सबको शान्ति मिलती है, इसलिए अहिंसा धर्म है / संयम से दुष्प्रवृत्तियाँ रुकती हैं, तृष्णा मन्द हो जाती है, संयमी पुरुषों के संयम-पालन से अनेक दुःखितों को आश्वासन मिलता है, राष्ट्र में शान्ति का प्रचार होता है, इसलिए संयम धर्म है / तप से अन्तःकरणशुद्धि होती है, इसलिए तप धर्म है / 4. धर्म और अहिंसादि के पृथक्-पृथक् उल्लेख का कारण यह है कि धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसा कि पहले बताया गया था / लौकिक धर्म अहिंसादि से युक्त नहीं होते, इसलिए कहीं ये धर्म भी उत्कृष्ट मंगल रूप न समझे जाएँ, इस दृष्टि से उत्कृष्ट मंगल रूप श्रमणधर्म को इनसे पृथक करने हेतु अहिंसा, संयम और तप का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। इसका फलितार्थ यह है कि जो धर्म अहिंसा, संयम और तप-रूप है, वही उत्कृष्ट मंगल है, शेष गम्यादि धर्म नहीं।४१ धर्म का माहात्म्य और फल-धर्म का माहात्म्य अपार है / 'तंदुलबैचारिक' नामक ग्रन्थ में धर्म का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है-"सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरणात्मक धर्म त्राणरूप है, शरणरूप है, धर्म सुगति रूप है, धर्म संसारगर्त में पड़ने वाले के लिए प्रतिष्ठान (आधार) रूप है। सम्यक प्रकार से आचरित धर्म अजर-अमर स्थान को प्राप्त कराता है। प्राचरित धर्म उसके पालक के प्रति जनसमुदाय द्वारा यहाँ और परलोक में भी प्रीति उत्पन्न करने वाला है, वह कीर्ति दिलाने वाला है, तेजस्वी बनाता है, यशस्वी बनाता है, प्रशंसनीय एवं रमणीय बनाता है, अभय बनाता है, और निर्व तिकर (शान्तिप्रद) है, सर्वकर्मक्षय करने वाला है / सम्यक् प्रकार से आचरित धर्म के प्रभाव से मनुष्य महद्धिक देवों में उत्पन्न होकर अनुपम रूप, भोगोपभोग-सामग्री और ऋद्धि प्राप्त करता है। तथा या तो वह केवलज्ञान प्राप्त करता है, अथवा मात, श्रत, अवधि और मनः चार या तीन ज्ञानों को प्राप्त करता है। धर्मनिष्ठ व्यक्ति देवेन्द्रपद प्राप्त करता है, अथवा राज्य के समस्त (सप्त) अंगों सहित चक्रवर्ती पद एवं अभीष्ट भोगसामग्री प्राप्त करता है या वह निर्वाण प्राप्त करता है / प्रस्तुत गाथा के उत्तरार्द्ध में यह बताया गया है कि जिसका मन सदैव धर्म में लीन एवं तन्मय रहता है, उस धर्मात्मा की महिमा देवों से भी अधिक होती है। साधारण लोग, यहाँ तक कि राजा-महाराजा एवं चक्रवर्ती आदि तो उसका अनुग्रह पाने के लिए उसकी वन्दना, नमन, सेवाप्रतिष्ठा आदि करते ही हैं, लोकपूज्य तथा महाऋद्धि-द्युति-ऐश्वर्य-सम्पन्न देव एवं देवेन्द्र भी उसकी वन्दना, पर्युपासना, स्तुति आदि करने में अपना अहोभाग्य एवं कल्याण समझते हैं। मिष्ठ पुरुष का जीवन और व्यक्तित्व ही इतना महान् अाकर्षक और तेजस्वी होता है कि वह विश्ववन्ध बन जाता है।४३ यद्यपि धर्मात्मा पुरुष को धर्म के सम्यक् आचरण से प्रात्मा की विशुद्धि एवं विकास के साथसाथ असाधारण सांसारिक पूजा-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान प्रादि आनुषंगिक फल के रूप में स्वतः प्राप्त होते हैं; परन्तु मिष्ठ व्यक्ति धर्म-पालन के प्रानुषंगिक फलस्वरूप प्राप्त होने वाली ऐसी सांसारिक 40. दशवै. (गुजराती अनुवाद संतबालजी) पृ. 4. 41. जिनदासचूणि, पृ. 38 42. 'तंदुलक्यालियं' 43. दशवै. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.) पृ. 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy