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________________ प्रथम अध्ययन : दुमपुष्पिका] [15 बाह्यतप के 6 भेद हैं-(१) अनशन, (2) ऊनोदरी, (3) भिक्षाचर्या (अथवा वृत्तिपरिसंख्यान), (4) रसपरित्याग, (5) कायक्लेश और (6) प्रतिसंलीनता (अथवा विविक्तशयनासन)।३० 1. अनशन-चतुर्विध या त्रिविध आहार का एक दिन, अधिक दिन या जीवनभर के लिए परित्याग करना / 2. ऊनोदरी-याहार, उपकरण आदि की मात्रा में कमी करना, क्रोधादि कषायों को घटाना / 3. भिक्षाचर्या-(साधुओं की अपेक्षा) विशुद्ध भिक्षा के लिए पर्यटन करना (गृहस्थों की अपेक्षा द्रव्यों अथवा उपभोग्य पदार्थों की प्रतिदिन गणना का नियम रखना / वृत्तिपरिसंख्यान है / 4. र सपरित्याग-प्रायम्बिल, निविग्गइ अादि तप के माध्यम से दूध, दही, घी, तेल, मीठा आदि रसों का त्याग करना, स्वादवृत्ति पर विजय प्राप्त करना / 5. कायक्लेश-शीत, उष्ण आदि को सहन करना, धर्म पालन के लिए केशलोच, पैदलविहार आदि कष्टों को सहना, वीरासन आदि उत्कट प्रासनों से शरीर को संतुलित एवं स्थिर रखना। 6. प्रतिसंलीनता-इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों में रागद्वेष न करना, स्त्रीपशु-नपुंसक-रहित विविक्त स्थान में निवास करना, उदय में आए हुए क्रोधादि को विफल करना और अनुदीर्ण क्रोध आदि का निरोध करना, अकुशल मन आदि को नियंत्रित करके कुशल मन आदि को प्रवृत्त करना / 38 प्राभ्यन्तर तप के 6 भेद हैं- (1) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्त्य, (4) स्वाध्याय (5) ध्यान और (6) ब्युत्सर्ग / 1. प्रायश्चित्त-साधनामय जीवन में लगे हुए अतिचारों या दोषों की विशुद्धि करने के लिए प्रतिक्रमण, पालोचना, निन्दना, गर्हणा आदि करके प्रायश्चित्त ग्रहण करना / 2. विनय देव गुरु और धर्म तथा ज्ञानादि के प्रति विनय करना, श्रद्धा, भक्ति-बहुमान आदि करना / 3. वैयावृत्त्यप्राचार्य प्रादि 10 प्रकार के साधकों तथा साधर्मी एवं संघ की शुद्ध आहार पानी आदि से सेवा करना। 4. स्वाध्याय-वाचना, पृच्छा, अनुप्रेक्षा (चिन्तन), परिवर्तना, और धकथा (व्याख्यान आदि) के द्वारा श्रुतज्ञान की आराधना करना / 5. ध्यान–पात और रौद्र ध्यान का परित्याग करके धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान द्वारा मन को एकाग्न करना, चित्त को तन्मय करना / 6. व्युत्सर्ग-काया आदि के व्यापार का एवं शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं, उपकरणों के ममत्व का त्याग करना, कषाय-ग्रादि का व्युत्सर्जन करना / 36 37 (क) अणसमूणणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चायो। कायकिलेसो संली णया य बज्झो तबो होइ // ----उत्तरा. अ. 30, गा. 8 (ख) अनशनाऽत्रमौदर्य-वत्तिपरिसंख्यान-रसपरित्याग-विविक्तशय्यासन-कायक्लेशा: बाह्य तपः / -तत्त्वार्थ. अ. 9 38. दश. (प्रा.म. मंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 67-68 39. (क) पायच्छित्तं विणग्रो वेयावच्चं तहेव सज्झायो। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो / / -उत्तरा. अ. 30, गा. 39 (ख) दश वै. (माचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 69-70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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