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________________ 14] [दशवकालिकसूत्र सुव्यवस्थित सुनियंत्रित रखना प्रशस्त चिन्तन में व्याप्त रखना मानसिक संयम है।• प्रकारान्तर से संयम के 17 भेद भी हैं जो प्रसिद्ध हैं / ' अहिंसा का सम्यक्तया पालन करने के लिए संयम के इन 17 भेदों का परिज्ञान आवश्यक है। अभिप्राय यह है कि अहिसा धर्म के सम्यक-परिपालन के लिए प्रत्येक कार्य को के इन भेदों को ध्यान में रख कर इतनी सावधानी (यतना एवं विवेक) से प्रवृत्ति करना चाहिए कि किसी भी जीव के द्रव्य या भावप्राणों की, अथवा स्वयं को प्रात्मा की विराधना न हो / 32 __ अहिंसा और संयम की अभिन्नता-अहिंसा को भगवान महावीर ने व्रतों में सर्वश्रेष्ठ बताया है / उन्होंने परिपूर्ण या निपुण अहिंसा का उपदेश समस्त प्राणियों के प्रति संयम के अर्थ में दिया है 133 इस दृष्टि से सर्वजोव के प्रति संयम अहिंसा है और हिंसा आदि पाश्रवों से विरति संयम है / इस प्रकार जो अहिंसा है वही संयम है / प्रश्न होता है जब अहिंसा ही संयम है, तब संयम का पृथक् उल्लेख क्यों किया गया ? प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने इसका समाधान करते हुए कहा-अहिंसा का अर्थ है-सर्वथा प्राणातिपात-विरमण आदि पांच महाव्रत; और संयम है-उनको रक्षा के लिए यथावश्यक नियमोपनियमों का पालन / इस दृष्टि से संयम, अहिंसा को टिकाने के लिए आवश्यक है, उसका अहिंसा पर उपग्रहकारित्व है।३४ तप : स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण-जो ज्ञानाबरणोय आदि आठ प्रकार को कर्म ग्रन्थि को तपाता है, जलाता है, नाश करता है। वह तप है / प्राचीन प्राचार्यों ने तप का एक लक्षण किया है-वासना या इच्छा का निरोध करना। मलिन चित्तवृत्ति को शुद्धि के लिए आन्तरिक एवं बाह्यक्रियाएँ करना तपश्चर्या है / बाह्य या आभ्यन्तर जितने भी तप हैं, उनका आचरण इहलौकिक तथा यारलौकिक नामना, कामना या वासना से रहित हो कर केवल निर्जरा (कर्मक्षय द्वारा प्रारमशुद्धि) की दृष्टि से करना ही धर्म है / 36 तप के मुख्य दो भेद हैं—बाह्य और प्राभ्यन्तर / 30. दशवकालिक. (गुजराती अनुवाद-संतबालजी), पृ. 4 31. दशवकालिक (प्राचारमणिमंजूषा व्याख्या) भा. 1., पृ. 12 से 16 तक 32. दशवै. (पाचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 5 33. दश. अ. 6 गा. 9 34. हारि. वृत्ति, पत्र 26 35. (क) तबोनाम तावयति अविहं कम्मगठि नासेति त्ति वृत्तं भवइ / —जिन. चणि, पृ. 15 (ख) तपति ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधं कर्म दहतीति तपः / -दशवै. प्रा. मणि. मं., भाग 1, पृ. 67 36. (क) 'इच्छानिरोधस्तपः' (ख) दशवै. (आ. प्रात्मा.) पृ. 6, -दशवै. (मु. अनु. संतबालजी), पृ. 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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