________________ प्रथम अध्ययन :द्र मपुष्पिका] [13 करता है, किन्तु किसी कारणवश घात नहीं कर पाता / 5 अत: वहाँ द्रव्यहिंसारहित केवल भावहिंसा होती है / जैसे—चावल के दाने जितने छोटे शरीर वाला तंदुलमत्स्य एक बड़े मगरमच्छ की भौहों पर बैठा-बैठा सोचता है यह मगरमच्छ कितना मालसी है ! इतने जलजन्तु पाते हैं, उन्हें यों ही जाने देता है / अगर इसके जितना बड़ा मेरा शरीर होता तो मैं एक को भी नहीं जाने देता, सबको निगल जाता / इस प्रकार की हिंसक भावना के कारण अन्तर्मुहूर्त मात्र में ही वह मर कर सातवें नरक का मेहमान बन जाता है। यह भावहिंसा का भयंकर परिणाम है। 3. उभयहिंसा-अशुद्ध परिणामों से जीव का घात करना उभयहिंसा है / जैसे कोई शिकारी मृग को मारने की भावना से वाण चलाता है, उससे उसके प्राणों का नाश हो जाता है / इस हिंसा में प्रात्मा के अशुद्ध (दुष्ट) परिणाम और प्राणों का नाश दोनों पाए जाते हैं / 27 ____अहिंसकक्रिया-इस प्रकार शुद्ध प्रेम, दया एवं अनुकम्पा तथा मैत्रीभाव रख कर उपयोगपूर्वक किसी भी प्राणी को दुःख पहुँचाने की भावना किये बिना शारीरिक, मानसिक या वाचिक क्रिया करना, वास्तव में अहिंसक-क्रिया है / ऐसी अहिंसा का आराधक केवल अहिंसक ही नहीं होता, अपितु सभी प्रकार की हिंसाओं का प्रबल विरोधी भी होता है / 28 संयम : स्वरूप, प्रकार और भेद-सावध योग से सम्यक् प्रकार से निवृत्त होना संयम है / प्राचार्य जिनदास महत्तर के अनुसार संयम का अर्थ उपरम है। अर्थात रागद्वेष न होकर एकीभाव-समभाव में स्थित होना संयम है / प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने संयम का अर्थ किया है-हिसा आदि पांच आश्रवद्वारों से विरति करना संयम है। हिंसा प्रादि पांच प्राश्रवों से विरति, कषायविजय, पंचेन्द्रियनिग्रह, मन-वचन-काया के दण्ड से विरति या गुप्ति (विरति) तथा पांच समितियों का पालन, ये सब यहाँ संयम शब्द में समाविष्ट हैं / संयम के मुख्य तीन प्रकार हैं-(१) कायिक संयम, (2) वाचिक संयम और (3) मानसिक संयम / शरीर से सम्बन्धित पदार्थों की आवश्यकताएँ यथाशक्ति घटाना कायिक संयम है, वाणी को कुमार्ग से हटा कर सुमार्ग में प्रवृत्त करना बाचिक संयम है और मन को दुविकल्पों से हटा कर 25. दशवं. पा. म. मजूषा व्याख्या भाग 1 पृ. 8.9 26. (क) तंदुलवेयालिय। (ख) दशका. प्राचारमणि मंजूषा, भा. 1., पृ. 10 27. दशय. प्राचारमणिमंजषा व्याख्या भा. 1, पृ. 11 28. दश. (मुजराती अनुवाद-संतबालजी) पृ. 4 28. (क) संयमः-संबमनं = सम्यगुपरमणं सावद्ययोगादिति संयमः। दशवे, प्राचा. म. मंजूषा, भा. 1, पृ. 11 (ख) संजमो नाम उपरमो, रागद्दीसविरहियएगीभावे भवइ त्ति / (म) पाश्रवद्वारोपरम: संयमः / -हारि. वत्ति, पत्र 29. (क) दसवेयालिय (सम्पादक-मुनि नथमलजी) पृ. 8 (ख) संयम के प्रकारान्तर से 17 भेद 'पंचास्रवाद्विरमणं पंचेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः / दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः / / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org