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________________ 12] [दशवकालिकसूत्र अर्थ है / अहिंसा का दूसरा अर्थ विधेयात्मक भी है। विधेयात्मक दृष्टि से अहिंसा का अर्थ होता हैजीवदया, प्राणियों के प्राणों की रक्षा, समता (प्राणियों के प्रति समभाव), आत्मौपम्य भाव, शुद्ध प्रेम, अनुकम्पा, सर्वभूतमैत्री, करुणा आदि / विधेयात्मक अहिंसा का पालन आत्मौपम्य (प्रात्मवत् भाव) से होता है / शास्त्र में बताया है--जैसे मुझे दुःख अप्रिय है, वैसे ही समस्त जीवों को भी अप्रिय है / 22 अथवा जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सब जीवों को है, ऐसा जानकर, अथवा जैसे मैं जीना चाहता हूं, वैसे ही सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता / अत: मुझे किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए। इसी प्रकार निषेधात्मक अहिंसा के पीछे परदुःखानुभूति के साथ आत्मानुभूति की जो भव्य भावना है वह भी अहिंसा है / 23 यह (अहिंसा) धर्म ध्र व, नित्य, शाश्वत और जिनोपदिष्ट है। हिंसा : स्वरूप और प्रकार-अहिंसा को हिंसा का प्रतिपक्षी बताया गया है, इसलिए जैन शास्त्रीय दृष्टि से हिंसा का स्वरूप समझ लेना भी आवश्यक है / प्राचार्य जिनदास महत्तर ने हिंसा का अर्थ किया है.--'दुष्प्रयुक्त (दुष्ट) मन, वचन एवं काया के योगों से प्राणियों का जो प्राण-हनन किया जाता है, वह हिंसा है / निष्कर्ष यह है कि किसी भी प्रकार के प्रमादवश, अनुपयुक्त या दुष्प्रयुक्त मन-वचन-काया के योगों से किसी भी प्राणी के प्राणों को किसी भी प्रकार से हानि पहुँचाना हिंसा है / 24 हिंसा तीन प्रकार की है—(१) द्रव्यहिसा, (2) भावहिसा और (3) उभयहिंसा / 1. द्रयहिसा---प्रात्मा के परिणाम शुद्ध होने पर भी अकस्मात् अनुपयोगवश अनिच्छा से ही किसी जीव को पीडा हो जाना या प्राणों को हानि हो जाना द्रयहिंसा है। जैसे-समितिगुप्तिधारक पंचमहाव्रती साधु के द्वारा विहारादि के समय या चलते-फिरते, बैठते-उठते आदि क्रियाएँ करते समय किसी भी जीव को पीड़ा न पहुँचाने, तथा सब जीवों की रक्षा करने की भावना होते हुए भी अकस्मात् अनुपयोगवश द्वीन्द्रिय आदि लघुकाय जीव का पैर के नीचे आकर मर जाना या प्राणभंग हो जाना द्रहिंसा है / यह हिंसा औपचारिक है, इसमें भावहिंसा नहीं है / 2. भावहिंसा-किसी प्राणी को प्राणों से रहित करने की कामना, भावना या इच्छारूप प्रात्मा का अविशुद्ध परिणाम भावहिंसा है / इसमें जीव केवल दुष्ट भावों से प्राणियों के घात को इच्छा 21. (क) अहिंसा = जीवदया, प्राणातिपात-विरतिः। -दी. टीका, पृ. 1 (ख) अहिंसा:पि भावरूपैव, तेन प्राणि रक्षणमप्यहिंसाशब्दार्थ: सिध्यति / -~-दशव. प्राचारमणिमंजषा टीका, भा. 1, पृ. 3 (ग) अप्पसम मन्निज्ज छप्पिकाए। -उत्तरा. अ. 6 (घ) दशवं. (गुजराती अनु.) पृ. 4 22. 'जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाण / सव्वे जीवा सहसाया दहप्पडिकला सव्वेसि जीवियं पियं / जाणित्त पत्त यं सायं--आचारांग 23. सूत्रकृतांग. 211215 24. जिन. चूणि, पृ. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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