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________________ 18] दिशवकालिकसूत्र प्रकार की एषणापूर्वक निर्दोष भिक्षाचर्या से साधु के श्रमणधर्म (चारित्र) पालन में कोई आंच नहीं पा सकती। 45 भ्रमरवृत्ति प्रस्तुत द्वितीय गाथा में भ्रमर की स्वाभाविक वृत्ति का उल्लेख किया गया है। भौंरा अपने जीवन-निर्वाह के लिए मंडराता हुआ किसी वृक्ष या लता, पौधे आदि के फूलों पर जाकर बैठता है, और उनका समूचा रस नहीं, किन्तु थोड़ा-थोड़ा रस मर्यादा-पूर्वक पीता है / ऐसा करके वह उन फूलों को हानि नहीं पहुँचाता, और वह स्वयं की तृप्ति कर लेता है / 46 इसीलिए इस गाथा में 'दुमस्स पुप्फस में बहवचनात्मक पद औरण यपृष्फ किलामह' में एकवचनात्मक पद ग्रहण किया गया है। 'मेसू' इस बहवचनात्मक पद से प्रकट किया गया है कि भौंरा एक फल पर ही नहीं, अनेक फलों पर जा कर रस चूसने के लिए बैठता है। इसी प्रकार साधु भी एक ही घर से नहीं, अनेक घरों से प्रहार ग्रहण करे / तथा 'पुप्फ' इस एकवचनात्मक पद से यह प्राशय निकलता है कि वह किसी एक घर को भी हानि नहीं पहुँचाता / 17 भिक्षाचरी की प्रक्रिया द्वारा अहिंसा, संयम और तप इन तीनों से युक्त श्रमणधर्म का भलीभांति पालन कर लेता है / साधु की निर्दोष भिक्षावृत्ति में इन तीनों धर्मांगों का भलीभांति पालन हो जाता है; क्योंकि अपने निमित्त से किसी भी जीव को पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। भिक्षाचर्या में साधु अपने लिए स्वयं प्राहार बना या बनवा कर किसी प्रकार से जीवों की हिंसा (प्रारम्भ) नहीं करता और न किसी गृहस्थ के द्वारा उसके स्वयं के लिए बनाये हुए आहार में से बलात् लेता है, स्वेच्छा भावना से जो देता है, उसी में से थोड़ा-सा लेता है, जिससे दाता गृहस्थ को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार दूसरों को पीड़ा न पहुँचे, इस तरह से थोड़े-से आहार से अपना जीवन निर्वाह कर लेना संयम है / साधु भिक्षाचरी करते समय अनेक घरों से थोड़ाथोड़ा लेकर मर्यादित आहार से अपना निर्वाह कर लेता है / भिक्षाचरी करते समय पर्याप्त पाहार न मिला या अपने नियमानुसार निर्दोष पाहार बिलकुल न मिला, तो संतोष करके उपवास करके अपनी इच्छा का निरोध कर लेता है, तो अनायास ही तप हो जाता है / इस प्रकार साधुजीवन में भिक्षाचर्या द्वारा स्वाभाविक रूप से स्व (श्रमण) धर्म का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से पालन हो जाता है / 48 भ्रमर और भिक्षु में अन्तर-यहाँ जो भ्रमर का दृष्टान्त दिया गया है, वह देशोपमा है, सर्वोपमा नहीं / भ्रमर में जो अनियतवृत्तिता का गुण है, उसी को लक्ष्य में रख कर शास्त्रकार ने भ्रमर का दृष्टान्त दिया है / 46 45, (क) दशवै. (प्राचारमणि-मंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 85 (ख) दशबै. (प्रा. श्री प्रात्मारामजी म.) पृ.८ 46. दशवै. (प्राचारमणि-मंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 86 47. दशवै. (प्राचारमणि-मंजूषा टीका) भा. 1., पृ. 86-87 48. दशवे. (गुजराती अनुवाद, संतबालजी) पृ. 5 49. (क) दशव. (आचार्यश्री पात्मारामजी म.) पृ. 10 (ख) दशवै. नियुक्ति गा. 100-101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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