________________ प्रथम अध्ययन : द्रमपुष्पिका] भ्रमर और भिक्षाजीवी साधु में भिक्षु को यह विशेषता है कि भ्रमर तो वृक्ष के पुष्प चाहें या न चाहें, तो भी उनमें से रस चूस लेते हैं, किन्तु भिक्षु तो, गृहस्थ अपने आहारादि में से प्रसन्नता से, स्वेच्छा से दें, तभी ग्रहण करते हैं / 'आवियई' आदि पदों का फलितार्थ-आवियइ-थोड़ा-थोड़ा पीता है, अथवा मर्यादा (प्रमाण) पूर्वक पीता है / फलितार्थ यह है कि जिस प्रकार पुष्पों से रस ग्रहण करते समय भ्रमर मर्यादा से काम लेता है, उसी प्रकार भिक्षु भी गृहस्थों से भिक्षा ग्रहण करते समय मर्यादा से काम ले / अर्थात् थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे, जिससे बाद में गृहस्थ को दूसरी बार बनाने की तकलीफ न पड़े / 'न य पुप्फ किलामेइ'---भ्रमर की वृत्ति यह है कि वह पुष्प या पुष्प के वर्ण-गन्ध को हानि न पहुँचाये, अथवा फूल को मुएि विना रस ग्रहण कर ले / इसी प्रकार भिक्षु भी किसी को हानि न पहुँचाये, डराये-धमकाए या टीकाटिप्पणी करके खिन्न किये बिना, जो दाता प्रसन्न मन से जितना दे, उतना ही लेकर सन्तुष्ट हो / ' समणा, मुत्ता, संति-साहुणो प्रादि पदों के विभिन्न विशेष अर्थ 'समणा' : चार रूप, चार अर्थ-(१) श्रमण--जो (धर्मपालन में या रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्ग में) श्रम-पुरुषार्थ करते हैं, अथवा जो कर्मक्षयार्थ श्रम-तप करते हैं; (2) शमन–जो कषायों और नोकषायों का शमन करते हैं, इन्द्रियों को शान्त-दान्त रखते हैं, (3) समण—जो अपने समान समस्त जीवों के प्रति सम (आत्मवत्) रहने हैं। अथवा समस्त जीवों के प्रति न तो राग रखते हैं, न द्वेष; मध्यस्थ हैं, वे भी समन हैं। (4) सुमनस् अथवा समनस्—जिसका मन शुभ है, सब का हितचिन्तक है, वह सुमना है, अथवा जिसका मन पाप से रहित है, जो शुभ मन से युक्त है, स्वजन-परजन या सम्मान-अपमान आदि में जो 'सम' है, वह समना है / 52 मुत्ता : दो अर्थ-(१) मुक्ताः- बाह्य और ग्राभ्यन्तर परिग्रह से अथवा राग-द्वेष. मोह, प्रासक्ति एवं घृणा से मुक्त-निर्ग्रन्थ या मुक्ति-निर्लोभता के गुण से युक्त / 50. दशवं. (गुजराती अनुवाद, संतवालजी) पृ. 5 51. हारि. वृत्ति, पत्र 32-33 52. (क) श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः। —हा. व. प. 68 (ख) शमयन्ति कषाय-नोकषायरूपानलमिति शमनाः। --दश. प्राचार म. म. भा. 1, पृ. 92 (ग) जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सब्व जीवाणं / न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो / / नत्थि य से कोइ वेसो, पिरो व सब्वेसु चेव जीवेस् / एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जायो / / तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइन होइ पावमणो / सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु / / ___-नियुक्ति गाथा 154, 155, 156 (घ) सह मनसा शोभनेन निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसः / / -स्थानांगटीका पृ. 268 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org