________________ 201 [दशवकालिकसूत्रं संति साहुणो : दो रूप, (1) शान्ति-साधवः–शान्ति-ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप गुणविशिष्ट शान्ति की, सिद्धि की, उपशम, निर्वाण या अकुतोभय की या हिंसाविरति की साधना करने वाले 13 (2) अथवा सन्ति साधकः-(क) साधु हैं, साधु-जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र के योग से अपवर्ग या निर्वाण की साधना करते हैं, वे साधु हैं / 14 लोए : दो अर्थ-(१) लोक में अर्थात् जैनशास्त्रीय दृष्टि से अढाई द्वीप-प्रमाण मनुष्यलोक में / यह अर्थ यहाँ इसलिए संगत है कि मनुष्य सिर्फ अढाई द्वीप में ही उत्पन्न होते हैं, रहते हैं / (2) लोक में अर्थात्-~भौगोलिक दृष्टि से वर्तमान जगत् में 55 विहंगमा व पुप्फेसु' : रहस्यार्थ—यहाँ 'भ्रमर' के बदले विहंगम' शब्द का उल्लेख विशेष अर्थ को धोतित करने के लिए है / 'विहंगम' का अर्थ है-आकाश में भ्रमण-शील भ्रमर / जिस प्रकार भ्रमर स्वयं उड़ता हुया अकस्मात् स्वाभाविकरूप से किसी वृक्ष के फूलों पर पहुँच जाता है, वह वृक्ष या फूल भ्रमर के पास नहीं पाता, उसी प्रकार साधु को भी आकाशी वृत्ति से भिक्षा के लिए स्वयं भ्रमण करते हुए स्वाभाविक रूप से उच्च-नीच-मध्यम, किसी भी कुल या घर में पहुँचना चाहिए, वह घर या गृहस्थ दाता भिक्षु के पास भिक्षा लेकर नहीं पाए / यह इन पदों का रहस्यार्थ है। 'समणा' के तीन विशेषण क्यों ?-प्रस्तुत माथा में 'समणा' पद दे देने से ही काम चल सकता था, फिर यहाँ समणा, मुत्ता, संति-साहुणो इन तीन विशेषणों के देने का क्या अभिप्राय है ? आचार्य हरिभद्र इसका समाधान करते हुए कहते हैं-लोक में 5 प्रकार के श्रमण प्रसिद्ध हैं—(१) निर्ग्रन्थ, (2) शाक्य, (3) तापस, (4) गैरिक और (5) आजीवक / यहाँ शेष चार प्रकार के श्रमणों का निराकरण करके केवल निर्ग्रन्थ एवं मोक्षसाधक या पंचमहाव्रतपालक श्रमण विशेष की भिक्षावृत्ति बताने के लिए उपर्युक्त तीन विशेषण दिये गए हैं।७ 53. (क) 'मुक्ताः बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन / ' —हारि, टीका, पृ. 68 (ख) शान्ति नाम ज्ञानदर्शनचारित्राणि अभिधीयन्ते'तामेव गुणविशिष्टा शान्ति साधयन्तीति साधवः, अहवा संति अकुप्रोभयं भण्णइ / - जि. चूणि पृ. 66 (ग) संति विज्जति खेत्तरेसु वि एवं धम्मताकहणत्थं / अहवा संति-सिद्धि साधेति संतिसाधवः / उवसमो वा संती, तं साहति संतिसाहबो। कव्वाणसाहणेण साधवः / (घ) " संति निव्वाणमाहियं ।"-सूत्रकृतांग. 1111111 (ङ) उड्ढे अहे य तिरियं, जे केइ तस-थावरा / सम्वत्थ विरति विज्जा, संति // सूत्र कृ.१।११।११ 54. साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः / --हारि, वृत्ति, पत्र 79 55. दशवै. (आचार्य आत्मारामजी म.) पृ. 12 56. दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 94 57. (क) दशवं. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 94 (ख) 'निग्गंथ-सक्क-तावस-गेरुय-प्राजीव पंचहा समणा / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 68 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org