________________ प्रथम अध्ययन : द्रमपुष्पिका] [21 भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ श्रमण को भिक्षावृत्ति और मधुकरवृत्ति में अन्तर-प्रश्न होता है, निर्ग्रन्थ श्रमण सर्वथा अपरिग्रही, कंचन-कामिनी का त्यागी होता है, इसी प्रकार भ्रमर भी बाहर से अपने पास कुछ भी नहीं रखता, ऐसी स्थिति में जैसे भ्रमर सीधा ही फूलों के पास पहुँच कर वे (फूल) चाहें या न चाहें, उनका रस चूस लेता है, क्या इसी तरह निर्ग्रन्थ साधु भी अन्य-तीर्थी तापसों की तरह वृक्षों के फल, कन्द-मूल आदि तोड़ कर ग्रहण एवं सेवन करे ? . शास्त्रकार कहते हैं-निर्ग्रन्थ श्रमण कदापि ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने से उसके दो महाव्रत भंग होते हैं वृक्ष, फल, मूल आदि सजीव होते हैं, उन्हें तोड़ने और खाने से उनकी हिंसा होती है, अतः साधु का प्रथम अहिंसा महाव्रत भंग होता है। दूसरे, वृक्षों के फल आदि को किसी के बिना दिये ग्रहण करने में तीसरा अदत्तादानविरमण (अचौर्य) महाव्रत भंग होता है / ऐसी स्थिति में क्या श्रमण गृहस्थों से आटा, दाल आदि मांग कर लाए और स्वयं आहार पकाए या पकवाए ? इसका समाधान यह है कि अहिंसा महाव्रती श्रमण ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि पचनपाचन अादि क्रियाओं-प्रारम्भों में सचित्त अग्नि और जल के जीवों का हनन होगा। इसी प्रकार वह आहार-सामग्री खरीद कर या खरीदवा कर भी नहीं ले सकता, क्योंकि अपरिग्रही और अहिंसक साधु के लिए यह वजित है / तब फिर वह अपनी उदरपूर्ति कैसे करे ? इस प्रश्न का समाधान तृतीय गाथा के अन्तिम चरण में किया गया है --दाण-भत्तेसणे रया। ये शब्द निर्ग्रन्थ श्रमण की भिक्षावृत्ति के मूलमंत्र हैं, और ये ही मधुकरवृत्ति से भिक्षावृत्ति की विशेषता को द्योतित करते हैं। इनका अर्थ है-भिक्षु गृहस्थों द्वारा प्रदत्त, (प्रासुक) भक्त (भोजन) की एषणा में तत्पर रहें। इसका फलितार्थ यह है कि निर्ग्रन्थ भिक्षु अदत्तादान (चोरी) से बचने के लिए दाता द्वारा स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक दिया हुआ आहार आदि ग्रहण करे / बिना दिया हुआ न ले। अर्थात् दाता के घर में स्वप्रयोजन के लिए बनाया हुआ, वह भी प्रासुक (अचित्त) हो, भिक्षा ग्रहण के किसी नियम के विरुद्ध न हो, ग्रहणयोग्य निर्दोष पाहार-पानी हो तो ग्रहण करे।८ इस प्रकार की गवेषणा और ग्रहणैषणापूर्वक भिक्षा ग्रहण करने से श्रमण अपने अहिंसा, अपरिग्रह और अचौर्य, तीनों महाव्रतों को अक्षुण्ण रख सकेगा। एषणा : परिभाषा और प्रकार-साधु को भिक्षाटन के समय प्रासुक, ग्राह्य, कल्पनीय एवं आहारादि को खोज, प्राप्ति और उसके उपभोग के समय जो विवेक रखना होता है, उसे ही एषणा अथवा एषणासमिति कहते हैं। उत्तराध्ययन प्रादि शास्त्रों में एषणा के तीन प्रकार बताए गए हैं—(१) गवेषणा-भिक्षाचरी के लिए निकलने पर साधु को आहार के ग्राह्य-अग्राह्य, या कल्पनीय 58. (क) दाणेत्ति दत्तगिहण भत्ते भज सेव फासुगेण्हणया। एसणतिगंमि निरया उवसंहारस्स सुद्धि इमा / —नियुक्ति गा. 123. (ख) 'दानग्रहणाद् दत्तं गृह,णन्ति, नादत्तम्, भक्तग्रहणेन तदपि भक्त प्रासुकं, न पुनराधाकर्मादि / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 63. (ग) 'दात्रा दानाय पानीतस्य भक्तस्य एषणे / ' -तिलकाचार्यवृत्ति (घ) दशवं. (गु. अनु. संतबाल) पृ. 5, दशवै. (मुनि नथमलजी) पृ. 11 / / (ङ) अवि भमर मयरिगगमा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं / समणा पुण भगवंतो नादिन भोत्त मिच्छन्ति / -दश. नियुक्ति गा. 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org