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________________ 22 [दशवकालिकसूत्र अकल्पनीय के निर्णय के लिए जिन नियमों का पालन करना है, अथवा जिन 16 उद्गम और 16 उत्पादन के दोषों से बचना है, उसे 'गवेषणा' कहते हैं, (2) ग्रहणेषणा–भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ साधु को भिक्षा ग्रहण करते समय जिन 10 एषणा-दोषों से बचना है या जिन-जिन नियमों का पालन करना है, उसे ग्रहणैषणा कहते हैं, और (3) परिभोगैषणा–भिक्षा में प्राप्त आहारादि का उपभोग (सेवन) करते समय जिन मण्डल के 5 दोषों से बचना है, उसे परिभोगषणा या ग्रासैषणा कहते हैं। प्रस्तुत तृतीय गाथा में 'एषणा में रत' होने का विशेषार्थ है-भिक्षा की शोध, ग्रहण और परिभोग सम्बन्धी तीनों एषणाओं के 47 दोषों से रहित शुद्ध भिक्षा की एषणा में तत्पर रहना, पूर्ण उपयोग के साथ सर्वदोषों से रहित गवेषणा आदि में रत रहना / प्रतिज्ञा का उच्चारण—गुरु शिष्य के समक्ष अपनी दढ़ प्रतिज्ञा को दोहराते हए कहते हैं..."हम इस तरह से वृत्ति-भिक्षा प्राप्त करेंगे, कि किसी जीव का उपहनन (वध) न हो; अथवा किसी भी दाता को दुःख न हो। इस प्रतिज्ञा के पालन के लिए भिक्ष यथाकृत आहार लेते हैं, जैसे भ्रमर पूष्पों से रस / "6. भिक्षा : स्वरूप, प्रकार और अधिकार-वैसे तो कई भिक्षक (भिखारी) भी भीख मांगते रहते हैं, और निर्ग्रन्थ श्रमण भी भिक्षाचर्या करते हैं, परन्तु इन दोनों की वृत्ति एवं कोटि में अन्तर है / भिक्षुक दीनता की भाषा में, याचना करके या गृहस्थ के मन में दया पैदा करके भीख मांगता हैं और निम्रन्थ : श्रमण न तो दीनता प्रदर्शित करता है, और न ही याचना करता है,६१ उसकी इस प्रकार की मांग या बाध्य करके किसी से भिक्षा लेने को वृत्ति नहीं होती, न ही वह जाति, कुल आदि बता कर या प्रकारान्तर से दया उत्पन्न करके भिक्षा लेता है। उसकी भिक्षा अमीरी भिक्षा है / उसकी त्यागवृत्ति से स्वयं प्राकर्षित होकर गृहस्थ अपने लिए बने हुए आहार में से उसे देता है / इसीलिए प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रमण निर्ग्रन्थों की भिक्षा को सर्वसंपत्करी कहा है। दीन, हीन, अनाथ और 59. (क) इरिया भासेसणादाणे उच्चारे समिती इय / गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा / ग्राहारोवहि-सेज्जाए एए तिन्नि विसोहए। उम्गमुपायणं पढमे बीए सोहेज्ज एसणं / परिभोगम्मि चउक्कं, विसोहेज्ज जयं जई॥ ---उत्तराध्ययन प्र. 24, गा. 2, 11, 12 (ख) "एसणतिगंमि निरया |" —नियुक्ति गा.१२३ (ग) 'एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रय-परिग्रहः / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 68 (घ) 'एसणे इति-गवेसण-गहण-घासेसणा सूइता।' -अगस्त्य. चूणि 60. जह दुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायसहावा / जह भमरा तह मुणिणो, नवरि अदत्तं न भुजंति / / कुसुमे सहावफुल्ले आहारंति भमरा जह तहा उ / भत्तं सहावसिद्ध समण-सुबिहिया गरेमति ! ...."नियुक्ति गा. 127, 128 99, 106, 113, 121 61. 'प्रदीणे वित्तिमेसिज्जा.-उत्तरा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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