________________ प्रथम अध्ययन : द्रमपुष्पिका] [23 अपाहिजों को दी जाने वाली भिक्षा (भीख) 'दीनवृत्ति' कहलाती है, और पांच प्रास्रवों का सेवन करने वाले, पंचेन्द्रियविषयासक्त, प्रमाद में निरन्तर रत, सन्तानों को उत्पन्न करने और पालने-पोसने में व्यस्त, भोगपरायण, प्रालसी, एवं निकम्मे लोगों को दी जाने वाली भिक्षा 'पौरुषघ्नी' कहलाती है / क्योंकि इससे उनमें पुरुषार्थहीनता आती है / 62 श्रमणधर्म-पालक भिक्षाजीवी साधुओं के गुण--- 5. महुकारसमा बुद्धा जे भवंति प्रणिस्सिया। नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो / / त्तिबेमि। // पढमं दुमपुफियऽज्य णं समत्तं // 1 // [5] जो बुद्ध (तत्त्वज्ञ) पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित हैं, नाना पिण्डों में रत हैं और दान्त हैं, वे अपने इन्हीं गुणों के कारण साधु कहलाते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- साधुता के गुणों को पहिचान-प्रस्तुत 5 वी गाथा में साधुता की वास्तविक पहिचान के लिए मुख्य चार गुणों का प्रतिपादन किया गया है / (1) बुद्ध, (2) मधुकरवत् अनिश्रित, (3) नानापिण्डरत और (4) दान्त / चारों गुणों को व्याख्या-(१) बुद्धा = प्रबुद्ध, जागृत, तत्त्वज्ञ अथवा कर्त्तव्य-अकर्तव्यविवेकी / 63 (2) महुकारसमा अणिस्सिया : मधुकरसम अनिश्रित : चार अर्थ -(क) जैसे मधुकर किसी फूल पर आश्रित नहीं होता, वह विभिन्न पुष्पों से रंस लेता रहता है, कभी किसी पुष्प पर जाता है, कभी किसी पूष्प पर। इसी प्रकार श्रमण भी किसो एक घर या ग्राम के आश्रित न हो। (ख) जैसे मधुकर की वृत्ति अनियत होती है, वह किस पुष्प पर रस लेने जाएगा, यह पहले से कुछ भी नियत या निश्चित नहीं होता, इसी प्रकार भिक्षाजीवी साधु भी पहले से किसी घर का कुछ भी निश्चित करके नहीं जाता, अनायास ही अनियत वृत्ति से कहीं भी भिक्षा के लिए पहुँच जाता है, (ग) भ्रमर जैसे किसी एक पुष्प में प्रासत या निर्भर नहीं होता इसी प्रकार श्रमण भी किसी खाद्य पदार्थ घर या गाँव-नगर में प्रासक्त नहीं होता / (घ) वह किसी निवासस्थान, कुटुम्ब, जाति, वर्ग आदि से प्रतिबद्ध न हो।६४ (3) नाणापिडरया-नानापिण्डरता : पांच अर्थ--(क) साधु अनेक घरों से ग्रहण किये हुए (थोड़े-थोड़े) पिण्ड = आहार में रत (प्रसन्न) (ख) विविध प्रकार का अन्त प्रान्त, नीरस या तुच्छ आहार ग्रहण करने में रुचि वाले हों, (ग) उक्खित्तचरिया आदि भिक्षाटन की नाना विधियों से भ्रमण करते हए प्राप्त पिण्ड (पाहार) में सन्तुष्ट रहे, (घ) कहाँ, किससे, किस 62. (क) हरिभद्रीय अष्टक (ख) दशवे. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 95-96 63. (क) दशव. (संतबालजी) पृ. 6, (ख) दशवै. (आ, प्रात्मा.) पृ. 16, (ग) दश. (प्राचार म. मं.) भा. 1 64. (क) दशवै. (मु. नथमलजी) पृ. 13, (ख) दश. (प्राचार म. म.) भा. 1, पृ. 103 (ग) दश. (संतवालजी) पृ. 6, (घ) दशव. (ग्रा. ग्रात्मारामजी) पृ. 16, (ङ) अणिस्सिया णाम अपडिबद्धा"। जि. प., प्र-६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org