________________ प्रथम अध्ययन : द्रमपुष्पिका] ये सब लौकिक द्रव्यधर्म सावध हैं / कुप्रावनिकधर्म भो द्रव्यधर्म कहलाते हैं। ये धर्म प्रादेय एवं उत्कृष्ट मंगलरूप नहीं होते / ४ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, संघधर्म, गणधर्म कुलधर्म, पाषण्डधर्म (व्रतधर्म) एवं अस्तिकायधर्म आदि कथंचित मंगलरूप और उपादेय तभी हो सकते हैं, जब ये श्रत-चारित्रधर्मरूप भावधर्म को पुष्ट करते हों, आत्मशुद्धि में सहायक बनते हों। भावधर्म का लक्षण है जो आत्मा को स्वभाव में स्थिर रखता है। प्रात्मा के स्वभाव या स्वगुण हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र / ये हो आत्मा को स्वभाव में धारण करके रखते हैं, इन्हीं से प्रात्मा स्वसुख प्रादि में स्थिर रह सकता है। प्रावश्यकर्णिकार श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को भावधर्म कहते हैं / व्यवहारधर्म, जो भावधर्म की ओर ले जाता है वह भी श्रुत चारित्रधर्म का परिपोषक हो तो मंगलरूप हो सकता है। प्राचार्य हरिभद्र ने व्यवहारधर्म का लक्षण षोड़शक प्रकरण में कहा है जिससे प्रात्मा के निकटवर्ती धर्मपालनसहायक चित्त की शुद्धि हो और शरीर के आश्रित होने वाली क्रियाओं से उसकी पुष्टि हो / उन्होंने बताया कि राग-द्वेष-मोहादि मलों या विकारों के दूर होने से चित्तशुद्धि होती है और शरीरादि के सत्क्रिया करने से पुण्य वृद्धि होती है / इस प्रकार ज्ञानावरणीयादि (घाती) पापकर्मों का क्षय होने से चित्तशुद्धि और आगमानुसार अहिंसादिपरिपोषक क्रिया करने से पुण्यवृद्धि होगी, चारित्रगुणों की भी वृद्धि होगी। इन दोनों से परम्परा से परा मुक्ति होगी। उत्कृष्ट मंगलरूप धर्म का लक्षण-शास्त्रकार ने धर्म की भावात्मक परिभाषा या लक्षण अहिंसा संयम एवं तपरूप की है, पश्चाद्वर्ती विद्वान् आचार्यों ने शाब्दिक दृष्टि से भी इसकी परिभाषा एवं लक्षण बताये हैं / प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने उक्त धर्म का लक्षण बताया है—“जो नरक तिर्यञ्च योनि, कुमानुष और अधमदेवत्वरूप दुर्गति में जाते हुए जीवों को धारण करके रखता है, उन्हें शुभ स्थान (मोक्ष या उच्चदेव लोक) में पहुँचाता या स्थिर करता है, उसे धर्म कहा जाता है।" प्राशय यह है कि जो आत्मा को पतन की ओर जाने से रोकता है और उत्थान या विकास के पथ पर ले जाता है, वह पुण्य कर्मों की वृद्धि के कारण या तो जीव को उच्च देवत्व में स्थापित करता है या सर्वथा कर्मक्षय के कारण मोक्षपद की प्राप्ति कराता है, वही धर्म उत्कृष्ट मंगल रूप होता है / 3. (ख) "कुप्रावनिक उच्चते—असावपि सावधप्रायो लौकिककल्प एव" -हारि. वत्ति पत्र 22 (ग) "वज्जो णाम गरहियो, सह बज्जेण सावज्जो भव // " -जि. चूणि, पृ. 17 4. 'दमविहे धम्मे पन्नत, त०-गामधम्मे नगरधम्मे रदृधम्मे पासंडधम्मे कुलधम्मे गणधम्मे संघधम्मे सुयधम्मे चरित्तधम्म अस्थिकायधम्मे य / " -स्थानांग. स्थान० 10 / 5. (क) संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे / सदष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः / -रत्नकरण्डकश्रावकाचार श्लोक. 2-3 (ख) 'सम्यग्दर्शनादिके कर्मक्षयकारणे प्रात्मरूपे' -मूत्रकृतांग श्र. 2 अ. 9 टीका 6. भावम्मि होइ दुबिहो, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य / / सुयधम्मो सज्झातो, चरित्तधम्मो ममणधम्मो // -ग्राव० चरिण 7. पोडशक 3 विव. श्लोक 2, 3, 4 8. दशव. हारि. वृत्ति 9. दशव. हारि. वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org